पॉलिग्राफ टेस्ट (Polygraph Test in Hindi) क्या होता है तथा क्यों इस्तेमाल किया जाता है?

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फोरेंसिक विज्ञान

पॉलीग्राफ टेस्ट को समझने से पूर्व फोरेंसिक विज्ञान को समझना महत्वपूर्ण हो जाता है। यह विज्ञान की एक ऐसी शाखा है, जिसकी सहायता से विभिन्न वैज्ञानिक तरीकों का प्रयोग कर न्यायिक प्रक्रिया से जुड़े महत्वपूर्ण प्रश्नों को समझने में मदद मिलती है। इसमें घटना स्थल से विभिन्न प्रकार के साक्ष्यों जैसे रक्त अथवा अन्य शारीरिक तरल पदार्थ, बाल, नाखून आदि को जुटाकर उनकी जाँच की जाती है तथा किसी मामले में फैसले तक पहुँचने में मदद मिलती है। इसके अतिरिक्त पॉलिग्राफ जैसे सत्य परीक्षण के तरीके भी इसी विज्ञान के अंतर्गत आते हैं। 

पॉलिग्राफ टेस्ट

आपने अक्सर समाचारों तथा फिल्मों आदि में पॉलीग्राफ टेस्ट (Polygraph Test) के बारे में सुना होगा। यह किसी व्यक्ति के झूठ को पकड़ने अथवा सत्य के परीक्षण की एक तकनीक है। जैसा कि, इसके नाम से स्पष्ट है इसमें अनेक ग्राफ्स की मदद से किसी व्यक्ति के जवाब की सत्यता की जाँच करी जाती है। ये विभिन्न ग्राफ टेस्ट किये जाने वाले व्यक्ति के ब्लड प्रेशर, साँस की दर, हृदय की धड़कन आदि को प्रदर्शित करते हैं। पॉलीग्राफ तकनीक का अविष्कार 1921 में ऑगस्टस लार्सन द्वारा किया गया। 

कैसे होता है टेस्ट?

टेस्ट करने के लिए व्यक्ति के विभिन्न बाहरी अंगों में कुछ उपकरण लगाए जाते हैं, जो व्यक्ति के साँस लेने की दर, हृदय की धड़कन आदि को मापते हैं तथा उसे ग्राफ में प्रदर्शित करते हैं। टेस्ट की शुरुआत सामान्य प्रश्नों जैसे नाम, पता आदि से होती है जिनका व्यक्ति पूरे आत्मविश्वास के साथ उत्तर देता है।

किंतु जब अचानक व्यक्ति से अपराध के संबंध में प्रश्न पूछे जाते हैं तब व्यक्ति पर मनोवैज्ञानिक दबाव पड़ता है, जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति के ब्लड प्रेशर, साँस लेने की दर, हृदय गति आदि में असामान्य परिवर्तन आता है जो ग्राफ में दिखाई देता है। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि व्यक्ति झूठ बोल रहा है।

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झूठ बोलने पर सामान्यतः किसी मनुष्य में असामान्य श्वसन दर, हृदय की धड़कन तथा ब्लड प्रेशर एवं पसीना आना जैसे लक्षण दिखाई देते हैं, जिससे किसी व्यक्ति के बयान के सच या झूठ होने का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। गौरतलब है कि, प्रत्येक परिस्थितियों में यह तकनीक कारगर साबित नहीं होती। कुछ परिस्थितियों में व्यक्ति बाहरी कारकों के कारण भी घबराया होता है, जिससे ग्राफ में परिवर्तन दिखाई देता है। इसके अतिरिक्त कुछ मानसिक रूप से मजबूत व्यक्ति बिना किसी शारीरिक परिवर्तन के भी झूठ बोलने में सक्षम होते हैं। 

सत्य परीक्षण के अन्य तरीके

पॉलीग्राफ टेस्ट (Polygraph test in Hindi) के अतिरिक्त कुछ अन्य टेस्ट भी हैं, जिनका प्रयोग किसी व्यक्ति के झूठ को पकड़ने में किया जा सकता है, इनमें नार्को टेस्ट तथा ब्रेन मैपिंग मुख्य हैं।

नार्को टेस्ट

यह भी सत्य परीक्षण में इस्तेमाल होने वाला एक महत्वपूर्ण टेस्ट है। इस टेस्ट में व्यक्ति को अर्ध मूर्छित कर उससे अपराध से संबंधित प्रश्न पूछे जाते हैं। अर्ध मूर्छित अवस्था में व्यक्ति के दिमाग का तुरंत प्रतिक्रिया करने वाला हिस्सा काम करना बंद कर देता है, जिससे व्यक्ति सोच समझकर जवाब देने में सक्षम नहीं रहता तथा इस बात की बहुत संभावना होती है की व्यक्ति सत्य बोलेगा। टेस्ट करने के लिए व्यक्ति को साधारणतः ट्रुथ सीरम जैसे सोडियम पेंटाथॉल अथवा सोडियम एमाइटल दिया जाता है। टेस्ट से पूर्व व्यक्ति की शारीरिक जाँच भी की जाती है।

ब्रेन मैपिंग

ब्रेन मैपिंग का अविष्कार 1995 में अमेरिकी न्यूरोलॉजिस्ट DR. LARRY FARWELL द्वारा किया गया था। इस तकनीक को ब्रेन फिंगरप्रिंटिंग भी कहा जाता है। यह एक अन्य तकनीक है, जिसकी सहायता से सत्य परीक्षण किया जाता है। इस प्रक्रिया में मष्तिष्क में उठने वाली अलग अलग आवृत्तियों की तरंगों का अध्ययन किया जाता है। इस टेस्ट में व्यक्ति को अपराध से संबंधित चित्र, ध्वनियाँ आदि सुनाई जाती हैं तथा इसके फलस्वरूप व्यक्ति के मष्तिष्क में उत्पन्न होने वाली प्रतिक्रिया का निरीक्षण किया जाता है।

सत्य परीक्षण की संवैधानिकता

ऊपर बताए गए सत्य परीक्षण टेस्ट के विभिन्न तरीकों की वैधता की बात करें तो इन्हें सबूत के तौर पर किसी न्यायालय में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। गौरतलब है कि, ऐसे परीक्षण संविधान में उल्लेखित मूल अधिकारों का हनन हैं। संविधान का अनुच्छेद 20 किसी भी दोषी करार व्यक्ति को उसके खिलाफ मनमाने तथा अतिरिक्त दंड से संरक्षण प्रदान करता है।

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अनुच्छेद 20(3) के अनुसार किसी व्यक्ति, जिसे किसी अपराध के लिए आरोपी बनाया गया है से उसके विरुद्ध गवाही देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। वहीं अनुच्छेद 21 किसी व्यक्ति को प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता प्रदान करता है। इसमें मानवीय प्रतिष्ठा से जीने का अधिकार, हथकड़ी लगाने के विरुद्ध अधिकार, अमानवीय व्यवहार के विरुद्ध अधिकार तथा जीवन रक्षा जैसे अधिकार शामिल हैं। 

सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य

मई 2005 में सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी मामले की जाँच कर रहा अधिकारी आरोपी को नार्को या लाई डिटेक्टर टेस्ट किए जाने के लिए मजबूर नहीं कर सकता क्योंकि इन टेस्टों में आरोपी अपने ही खिलाफ बयान दे सकता है जो संविधान के अनुच्छेद 20 (3) के तहत किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन है। इस प्रकार पॉलीग्राफ टेस्ट, नार्को टेस्ट तथा ब्रेन मैपिंग जैसे परीक्षण किसी भी न्यायालय में मान्य नहीं हैं, हालाँकि कोई व्यक्ति अपनी मर्जी से ऐसे किसी परीक्षण की इजाज़त दे सकता है।

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