पिछले वर्ष पारित हुए तीन कृषि कानूनों के विरोध में देश भर के किसान प्रदर्शन कर रहे हैं। किसानों का मानना है कि ये कानून उन्हें उनकी फसल पर मिलने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी MSP तथा APMC मंडियों की व्यवस्था को खत्म कर देंगे। इन कानूनों को लाने के पीछे सरकार का क्या उद्देश्य है तथा कानून के विरोध में किसानों के क्या तर्क हैं, ये सभी बातें इस लेख में आगे विस्तार से जानेंगे लेकिन सबसे पहले भारत के कृषि क्षेत्र की एतिहासिक पृष्ठभूमि को समझना बेहद जरूरी है।
भारतीय कृषि क्षेत्र का इतिहास
भारत की आज़ादी के समय देश में ज़मीदारी प्रथा विद्यमान थी और किसान महाजनों, साहूकारों, जमींदारों आदि से शोषित थे। ये लोग किसानों को ऊँची दरों पर ऋण मुहैया कराते तथा ऋण वसूली के रूप में किसानों की फसल को सस्ते दामों में खरीद लेते थे। इसके अलावा इस दौर में किसानों के उपज की बिक्री के लिए कोई संगठित बाज़ार भी उपलब्ध नहीं था और वे अपनी फसलों को बिचौलियों को सस्ते दामों में बेचने के लिए मजबूर थे।
इस समस्या का समाधान करने के लिए 1960-70 के दशक में Agricultural Produce Market Committee (APMC) की व्यवस्था की गई तथा सभी राज्यों ने APMC कानून पारित किए।
इसके अंतर्गत प्रत्येक राज्यों में अलग-अलग स्थानों पर बाज़ार के रूप में मंडियों को स्थापित किया गया और यह प्रावधान किया गया कि कोई अन्य व्यक्ति मंडी के बाहर किसान की फसल नहीं खरीद सकेगा। किसान के लिए अपनी पहली फसल अपने क्षेत्र की APMC मंडी में बेचना अनिवार्य कर दिया गया।
कैसे काम करती हैं APMC मंडियाँ?
APMC मंडी में कुछ पंजीकृत लोग होते हैं, जिन्हें किसानों की फसल खरीदने की अनुमति होती है। इन्हें आम तौर पर आढ़तिया या कमीशन एजेंट के नाम से जाना जाता है। कोई भी किसान अपनी फसल केवल पंजीकृत व्यक्ति को ही बेच सकता है। ये आढ़तिये बोली के माध्यम से किसानों की फसलों को खरीदते हैं।
न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की शुरुआत
साल 1964 में आए अकाल तथा अगले वर्ष पाकिस्तान से हुए युद्ध के कारण देश में खाद्यान्न की काफी कमी होने लगी। इस समय तक भारत खाद्यान्न में आत्मनिर्भर नहीं था और देश को अमेरिका से इसका आयात करना पड़ता था। अमेरिका पर बढ़ रही खाद्यान्न की निर्भरता को कम करने के लिए देश में हरित क्रांति की शुरुआत हुई।
हरित क्रांति के तहत उन्नत बीज किसानों को मुहैया करवाए गए तथा कृषि उत्पादों, जिनमें मुख्यतः अनाज शामिल थे के उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी MSP देने की घोषणा करी गई। दूसरे शब्दों में किसानों को फसल बुवाई से पूर्व ही उस फसल के लिए एक निर्धारित कीमत देने का आश्वासन दे दिया गया।
कृषि क्षेत्र में किये गए सुधारों तथा MSP के चलते साल 1980 आते-आते देश खाद्यान्न में आत्मनिर्भर हो गया, लेकिन किसानों को उनकी कुछ चुनिंदा फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य देने की व्यवस्था जारी रही।
MSP की कार्यप्रणाली
न्यूनतम समर्थन मूल्य वर्तमान में कुल 23 फसलों पर लागू होता है, जिनमें अनाज, दालें, तिलहन तथा वाणिज्यिक फसलें शामिल हैं। गौरतलब है की फल, फूल, सब्जियाँ इत्यादि इसके अंतर्गत शामिल नहीं हैं।
न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रतिवर्ष फसल की बुवाई से पहले तय किए जाते हैं। केंद्र सरकार की एक समिति Commission for Agricultural Costs & Prices (CACP) न्यूनतम समर्थन मूल्य के संबंध में अपनी सिफारिशें Cabinet Committee on Economic Affairs (CCEA) को भेजती है और उसके बाद MSP का निर्धारण होता है।
MSP के तहत आने वाली फसलों की स्थिति में मंडी में बोली तय MSP से नीचे नहीं लगाई जा सकती। इसके अतिरिक्त दो फसलों यथा गेहूँ एवं चावल की खरीद का आश्वासन सरकार द्वारा भी दिया जाता है अतः किसानों के पास गेहूँ तथा चावल को APMC मंडी में या सीधे सरकार को बेचने का विकल्प होता है। सरकार Food Corporation of India (FCI) के माध्यम से गेहूँ तथा चावल की खरीद तय न्यूनतम समर्थन मूल्य पर करती है।
MSP तथा APMCs के फायदे एवं नुकसान
APMCs से कुछ हद तक किसानों को लाभ मिला, किसानों को एक संगठित बाज़ार उपलब्ध हुआ तथा महाजन एवं साहूकार आदि से किसान की फसल कुछ हद तक सुरक्षित भी हुई। किन्तु समय के साथ इस व्यवस्था की भी खामियाँ सामने आने लगी। आइए नज़र डालते हैं APMC व्यवस्था की कुछ खामियों पर।
- चूँकि कोई किसान अपनी पहली फसल मंडी के अतिरिक्त कहीं नहीं बेच सकता था ऐसे में APMC मंडियों का एकाधिकार बढ़ने लगा।
- मंडी व्यवस्था में कई प्रकार के शुल्कों जैसे मंडी कर, आढ़तियों का कमीशन तथा फसलों के परिवहन आदि के चलते लागत मूल्य में व्रद्धि होती है, जिससे आम लोगों को कृषि उत्पाद महँगे दामों में मिलते हैं।
- इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता की कुछ मंडियों में खरीददारों की मिलीभगत के चलते किसानों को अपनी फसलें कम दामों में बेचनी पड़ती थी।
- किसानों के लिए केवल अपने क्षेत्र की मंडी में ही फसल बेचने का विकल्प था।
- FCI के कुछ भ्रष्टाचारी अधिकारियों के कारण कई किसान अपनी फसल MSP के बजाए कम दामों में बिचौलियों को बेचने पर मजबूर थे।
आंकड़ों की बात करें तो देश के केवल 6 फीसदी किसान ही मंडी तक अपने उत्पादों को पहुँचा पाते हैं। अधिकांश किसान आज भी बिचौलियों को ही अपनी फसलें बेच रहे हैं। इसका एक मुख्य कारण परिवहन की लागत भी है, छोटे किसानों की उपज इतनी नहीं होती कि वे मंडी तक अपने उत्पादों को ले जा सकें। इसके अतिरिक्त लगभग आधे किसानों को APMC तथा MSP जैसी व्यवस्थाओं के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं हैं।
कृषि अधिनियम (2020)
पिछले साल सितंबर में केंद्र सरकार द्वारा कृषि अधिनियम 2020 पारित किया गया। इस अधिनियम को लागू करने के पीछे सरकार का मुख्य उद्देश्य किसानों के लिए एक बृहद बाजार उपलब्ध कराना है। यह कानून तीन अलग-अलग कानूनों से मिलकर बना है। आइये समझते हैं प्रत्येक अधिनियम के मुख्य प्रावधानों को।
(1) कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम 2020
इस अधिनियम के अनुसार निम्न प्रावधान किए गए हैं।
- कोई भी किसान अपने उत्पादों जिसके अंतर्गत कृषि उपज, मछली पालन, पशुपालन, दुग्ध उत्पाद आदि शामिल हैं को APMC के बाहर किसी व्यक्ति, कंपनी, संस्था आदि को बेच सकता है।
- किसान अपने उत्पादों को अपने राज्य की किसी APMC मंडी या किसी अन्य राज्य की APMC मंडी में बेच सकता है।
- किसान अपने उत्पादों को ऑनलाइन माध्यम से भी बेच सकता है।
- कोई भी राज्य सरकार ऐसे किसी व्यक्ति, संस्था या कंपनी पर जो APMC से बाहर किसानों की उपज को खरीद रहें हैं कोई कर या शुल्क नहीं लगाएगी।
- किसान तथा कृषि उत्पाद खरीदने वाले व्यक्ति, संस्था या कंपनी के मध्य कोई विवाद होने की स्थिति में उस क्षेत्र का SDM मामले की सुनवाई 30 दिनों के भीतर करेगा, यदि कोई पक्ष SDM के फैसले से संतुष्ट नहीं है तो वह अंतिम अपील के रूप में जिले के जिलाधिकारी या उसके द्वारा नियुक्त किसी अन्य अधिकारी के पास जा सकता हैं।
(2) कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार अधिनियम 2020
यह कानून मुख्य रूप से किसानों को अनुबंध कृषि (Contract Farming) करने का अधिकार तथा किसानों को अनुबंध कृषि से हो सकने वाले नुकसान से उनका संरक्षण करता है। अनुबंध कृषि के अंतर्गत किसान किसी व्यक्ति, संस्था तथा कंपनी से फसल उत्पादन से पूर्व ही अनुबंध या Contract कर सकता है, जिसमें किसान द्वारा उपलब्ध कराई जाने वाली उपज की मात्रा, फसल की कीमत तथा अन्य शर्तें लिखी होंगीं।
कानून में किसान से अनुबंध करने वाले पक्ष को प्रायोजक या Sponsor कहा गया है। इसके तहत किसानों को निम्न प्रकार की सुरक्षा प्रदान की जाएगी।
- किसान अनुबंध करने के समय अपनी फसल की एक निश्चित कीमत तय कर सकता है। इसके अतिरिक्त किसान अनुबंध में यह शर्त भी जोड़ सकता है की यदि फसल की बिक्री के समय बाजार में उसकी फसल का मूल्य अनुबंध में उल्लेखित कीमत से अधिक हो तो प्रायोजक किसान को बाज़ार की कीमतों के अनुसार (जैसा अनुबंध में तय होगा) मूल्य देगा। वहीं यदि बाजार में उस फसल की कीमतों में कमी आती है तो प्रायोजक को अनुबंध में तय हुई कीमत किसान को देनी होगी।
- अनुबंध की समयावधि न्यूनतम एक फसलीय चक्र से पाँच वर्षों तक होगी।
- किसान तथा प्रायोजक के बीच होने वाले अनुबंध का मसौदा सरकार भविष्य में निर्धारित कर सकती है।
- प्रायोजक को किसान से फसल की डिलीवरी लेते समय ही भुगतान करना अनिवार्य है। किन्तु किसी विलम्ब जैसे बैंक अवकाश आदि की स्थिति में अधिकतम तीन दिनों के भीतर भुगतान करना अनिवार्य होगा।
- किसान तथा प्रायोजक के मध्य होने वाले अनुबंध के किसी भी भाग में किसान की जमीन को शामिल नहीं किया जा सकेगा। इसके अतिरिक्त प्रायोजक किसान की जमीन में कोई भी स्थायी संरचना निर्मित नहीं करेगा जब तक कि किसान इसके लिए मंजूरी न दे। अनुबंध खत्म होने के बाद प्रायोजक को अपने खर्च पर उस संरचना को हटाना होगा अन्यथा वह किसान की संपत्ति समझी जाएगी।
- सभी राज्य सरकारों के लिए यह आवश्यक है कि वे एक संस्था का निर्माण करें जो अनुबंध कृषि करने वाले सभी प्रायोजकों का पंजीकरण करेगी ताकि उनकी वैधता सुनिश्चित की जा सके।
- किसी विवाद की स्थिति से निपटने के लिए किसान एवं प्रायोजक एक बोर्ड जिसमें दोनों के चुने हुए सदस्य शामिल होंगे का निर्माण अनुबंध के माध्यम से कर सकते हैं। किंतु यदि ऐसा न किया गया हो या बोर्ड का फैसला किसी पक्ष को मंजूर न हो तो दोनों पक्ष SDM के पास जा सकते हैं तथा SDM के फैसले के खिलाफ जिले के जिलाधिकारी या उसके द्वारा नियुक्त किसी अन्य अधिकारी से अंतिम अपील कर सकते हैं।
- किसी विवाद के पश्चात यदि प्रायोजक दोषी पाया जाता है तो उस पर किसान से तय की गई राशि के 1.5 गुना तक का जुर्माना लगाया जा सकता है जबकि किसान के दोषी पाए जाने पर किसान को केवल प्रायोजक द्वारा निवेश की गई राशि ही लौटानी होगी।
(3) आवश्यक वस्तुएं (संशोधन) अधिनियम 2020
यह अधिनियम सर्वप्रथम 1955 में पारित किया गया जो आवश्यक वस्तुओं की जमाखोरी को रोकता है। इस कानून के तहत आवश्यक वस्तुओं की सूची में आने वाली वस्तुओं के भंडारण की सीमा तय की जाती है तथा उससे अधिक भंडारण करना गैर-कानूनी होता है। वर्तमान कानून इसी मूल कानून का संशोधित रूप है।
इसके अनुसार साधारण परिस्थितियों में खाद्य उत्पादों को आवश्यक वस्तुओं की सूची से बाहर रखा जाएगा। केवल किसी असाधारण परिस्थिति जैसे युद्ध, प्राकृतिक आपदा तथा किसी वस्तु विशेष की कीमतों में असामान्य वृद्धि के दौरान ही आवश्यकतानुसार वस्तुओं को इस सूची में जोड़ा जा सकेगा।
कीमतों में असाधारण वृद्धि के आधार पर वस्तुओं को दो भागों में बाँटा गया है। यदि उत्पाद बागवानी से संबंधित हैं जैसे फल, फूल, सब्जियां इत्यादि तथा इनकी कीमतों में पिछले एक साल में 100 फीसदी की व्रद्धि हुई है तब ऐसे उत्पादों को आवश्यक वस्तुओं की सूची में शामिल किया जाएगा। इसके अलावा अन्य किसी उत्पाद जैसे अनाज, दालें आदि की कीमतों में पिछले एक साल में 50 फीसदी की व्रद्धि हुई है तो ऐसे उत्पादों को भी आवश्यक वस्तुओं की सूची में शामिल किया जाएगा।
इस कानून के कुछ अपवाद भी हैं। असाधारण परिस्थिति में भी किसी खाद्य प्रसंस्करण कंपनी को उसकी उत्पादन क्षमता के अनुसार भंडारण करने की छूट होगी। वहीं यदि कोई कंपनी जो वस्तुओं का निर्यात करती है नें किसी वस्तु के निर्यात की माँग स्वीकार कर ली हो तो उसे भी उतनी मात्रा तक भंडारण करने की छूट होगी।
कानून की अच्छाइयाँ
आइये अब इस अधिनियम की कुछ अच्छाइयों को समझते हैं जिनसे निश्चित तौर पर किसान लाभान्वित होंगे।
- किसान अपनी फसलों को देशभर की किसी भी APMC मंडी, निजी कंपनी, व्यक्ति, संस्था आदि को बेच सकते हैं। इससे किसानों को बाज़ार के नए विकल्प उपलब्ध होंगे तथा फसलों को केवल अपने क्षेत्र की APMC मंडी में बेचने की बाध्यता समाप्त हो जाएगी।
- खुला बाजार उपलब्ध होने से एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा होने की भी संभावना है।
- अनुबंध कृषि जैसी व्यवस्था आने पर कृषि के तौर-तरीकों में बदलाव आएंगे जिससे फसलों के उत्पादन तथा गुणवत्ता में बढ़ोतरी होगी।
- अनुबंध कृषि के माध्यम से किसान के पास MSP की तर्ज पर अपनी फसल की एक न्यूनतम कीमत तय करने का विकल्प है।
- कई लोगों के मन में यह संदेह है की अनुबंध कृषि जैसी व्यवस्था से निजी क्षेत्र द्वारा किसानों की जमीन पर कब्जा किया जा सकता है, किन्तु जैसा की हमनें दूसरे कानून में देखा इसकी कोई संभावना नहीं है।
कानून की खामियाँ
इस कानून में कुछ खामियाँ भी हैं, जिन पर सरकार को ध्यान देने की आवश्यकता है।
- विवाद की स्थिति में मामलों की सुनवाई के लिए किसी सिविल न्यायालय की व्यवस्था नहीं की गयी है। हालाँकि सरकार का इस विषय में मानना है कि न्यायालय की व्यवस्था करने से किसानों को न्याय मिलने में समय लगेगा तथा किसी गरीब किसान के लिए वकील तथा कोर्ट कचहरी के खर्चे वहन करना भी संभव नहीं होगा।
- किसान तथा प्रायोजक के मध्य होने वाले अनुबंध का मॉडल सरकार द्वारा नहीं बनाया गया है। चूँकि देश में अधिकांश किसान इतने शिक्षित नहीं हैं कि, कानूनी भाषा को समझ सकें अतः इस बात की संभावना है कि कोई प्रायोजक बिना किसान की जानकारी के नियम एवं शर्तों में कुछ ऐसी शर्तें शामिल कर दे जो किसान के हित में न हो।
- सरकार द्वारा किसानों से फसल खरीदने वाले व्यक्तियों, संस्थाओं, कंपनियों आदि के पंजीकरण की शर्तों को बहुत आसान बनाया गया है केवल एक पेन कार्ड की सहायता से कोई व्यक्ति अपना पंजीकरण करवा सकता है। इसे थोड़ा विनियमित किया जाना चाहिए, जिससे किसानों का व्यापारियों के प्रति विश्वास मजबूत हो।
- खुले बाज़ार की व्यवस्था होने के चलते इस बात की संभावना भी हैं कि APMC मंडी धीरे धीरे समाप्ति की कगार पर आ जाएं। जहाँ मंडी से फसल खरीदने पर मंडी शुल्क देना होता है वहीं सीधे किसान से उत्पाद खरीदने पर यह शुल्क नहीं देना होगा।
आंदोलन कर रहे किसानों का तर्क
आंदोलन कर रहे किसानों का मानना है की इस कानून के लागू होने से APMC मंडियाँ धीरे धीरे खत्म हो जाएंगी जिसके परिणामस्वरूप न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था भी समाप्त हो जाएगी। आंकड़ों के अनुसार हरियाणा तथा पंजाब में उत्पादित कुल गेहूँ का लगभग 70% तथा चावल का 88% FCI द्वारा MSP पर खरीदा जाता है, ये FCI द्वारा देशभर से खरीदे गए कुल गेहूँ का 62% तथा चावल का 32% है।
अतः इस बात में कोई दो राय नहीं हैं कि इन राज्यों की अर्थव्यवस्था में MSP का महत्वपूर्ण योगदान है। यही कारण है की आंदोलन करने वाले अधिकांश किसान इन्हीं राज्यों से हैं।
पूर्व में लागू कानून
समय के साथ APMC व्यवस्था में कुछ सुधार भी हुए हैं। साल 2003 में केंद्र सरकार द्वारा पारित कानून के तहत राज्यों को APMC व्यवस्था में सुधार करने के लिए कहा गया। जिसके परिणामस्वरूप बिहार ने 2006 से APMC की बाध्यता को समाप्त कर दिया। इसके अतिरिक्त साल 2006 में ही महाराष्ट्र ने भी वर्तमान कानून से मिलती-जुलती एक व्यवस्था की जिसके तहत APMC मंडियों की तर्ज पर प्राइवेट बाज़ार की शुरुआत हुई तथा सीधे किसानों से कृषि उपज खरीदने के लिए भी लाइसेंस वितरित किए जिससे किसान की केवल APMC में अपनी फसल को बेचने की बाध्यता समाप्त हो गयी।
निष्कर्ष
कानून के निष्कर्ष की बात करें तो यह कृषि क्षेत्र में एक नया प्रयोग होगा। निजी क्षेत्र के आ जाने से इसकी संभावनाएं भी हैं कि वे किसानों को उर्पयुक्त सलाह एवं सुविधाएं मुहैया करवाएं जिससे देश में वैज्ञानिक कृषि को बढ़ावा मिल सके।
MSP तथा APMC जैसी व्यवस्थाओं का लाभ देश के केवल 6 फीसदी किसान लेते हैं ऐसे में बाकी किसानों के लिए इस कानून के द्वारा कुछ नए विकल्प जैसे अनुबंध कृषि, उत्पादों की ऑनलाइन बिक्री आदि सामने निकलकर आएंगे। इसके साथ ही सरकार को कुछ बिंदुओं पर ध्यान देने की भी आवश्यकता है।
चूँकि पंजाब, हरियाणा जैसे राज्यों के अधिकांश किसान MSP पर अपनी फसल बेचते हैं तथा इन राज्यों की अर्थव्यवस्था भी बहुत हद तक कृषि पर निर्भर करती है अतः ऐसे में सरकार को चाहिए को इन किसानों को MSP का पूर्व की तरह आश्वासन दिया जाए। APMCs तथा नए बाज़ार में असमानताएं हैं जिनकी हमनें ऊपर चर्चा की है इन्हें दूर करने की आवश्यकता है। सरकार को चाहिए कि वो APMCs को भी विभिन्न प्रकार के शुल्कों से मुक्त करे या नई बाज़ार व्यवस्था में भी APMCs की भाँति शुल्क की व्यवस्था करे।