नमस्कार दोस्तो स्वागत है आपका जानकारी ज़ोन में, जहाँ हम विज्ञान, प्रौद्योगिकी, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, अर्थव्यवस्था तथा यात्रा एवं पर्यटन जैसे अनेक क्षेत्रों से महत्वपूर्ण तथा रोचक जानकारी आप तक लेकर आते हैं। आज के इस लेख में हम चर्चा करेंगे प्रथम विश्वयुद्ध (The First World War in Hindi) की जानेंगे उन कारणों को, जिसके परिणामस्वरूप इस युद्ध की नौमत आई तथा चर्चा करेंगे भारत की इस युद्ध में भूमिका पर।
प्रथम विश्वयुद्ध से पूर्व विश्व की स्थिति
प्रथम विश्वयुद्ध से पूर्व की बात करें तो लगभग पंद्रहवीं शताब्दी के बाद यूरोप में पुनर्जागरण का दौर शुरू हुआ धार्मिक कर्मकांडों को छोड़ विज्ञान तथा भौतिकवाद पर जोर दिया गया, इन्हीं कारणों के चलते यूरोप विश्व का अग्रदूत बनकर सामने आया। इसी समय में विभिन्न यूरोपीय यात्रियों द्वारा विश्व की यात्रा कर कई देशों या भू-भागों की खोज की गई तथा अलग अलग देशों से व्यापार के अवसर बढ़ने लगे।
धीरे-धीरे यूरोपीय देश इन क्षेत्रों में अपना साम्राज्य स्थापित करने की होड़ में लग गए। साम्राज्य फैलाने की इसी होड़ के चलते यूरोप में गुटबाज़ी होने लगी, गुप्त संधियाँ होने लगी और अन्ततः यह साम्राज्यवादी लिप्सा प्रथम विश्वयुद्ध के रूप में सामने आयी।
युद्ध से पूर्व की घटनाओं में जर्मनी एवं इटली का एकीकरण दो महत्वपूर्ण घटनाएं थी। 19वीं सदी से पूर्व इटली अनेक छोटे-छोटे राज्यों में बँटा था। इन राज्यों के शासक स्वतंत्र रूप से शासन करते थे, किन्तु इस दौर में कुछ ऐसी घटनाएं घटी, जिन्होंने इन सभी राज्यों में राष्ट्रवाद को प्रेरित किया और अन्ततः 1870 में इटली यूरोप में एक शक्तिशाली राष्ट्र बनकर उभरा। इटली की ही भाँति जर्मनी भी 19वीं शताब्दी के आरंभ में केवल भौगोलिक अभिव्यक्ति था किन्तु 1871 में जर्मनी का एकीकरण हुआ जिसमें बिस्मार्क ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
प्रथम विश्वयुद्ध के कारण (Causes of First world War in Hindi)
हाँलाकि प्रथम विश्व युद्ध के कई कारण रहे, जिन्होंने आग में घी का कार्य किया फिर भी जिस मुख्य कारण की वजह से युद्ध की स्थिति बनी वह यूरोपीय देशों की साम्राज्यवादी नीति एवं उपनिवेशों की भूख थी। युद्ध के लिए जिम्मेदार कुछ महत्वपूर्ण कारण निम्न हैं।
- जर्मन-फ्रांस युद्ध
- उपनिवेशों की भूख
- उग्र राष्ट्रवाद
- बाल्कन क्षेत्र
जर्मन फ्रांस युद्ध
सन 1871 में जर्मनी ने बिस्मार्क के नेतृत्व में फ्रांस के लॉरेन और अलसास क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया, जिसके बाद जर्मनी को हमेशा फ्रांस की बदले की कार्यवाही का भय बना रहा, इसी भय के चलते जर्मनी फ्रांस को अन्य यूरोपीय देशों से अलग थलग करने लगा। परिणामस्वरूप उसने सन 1879 में ऑस्ट्रिया के साथ एक संधि की और 1882 में इटली भी इस संधि में शामिल हो गया।
बिस्मार्क ने अपने शासन काल में रूस के साथ भी संधियाँ कर उसे अपने पक्ष में मिलाए रखा किन्तु उसके बाद जर्मन सम्राट विलियम कैसर रूस के साथ संबंध स्थापित करने में नाकाम रहा। नए जर्मन सम्राट की इस नाकामी का फ्रांस ने लाभ उठाया और फलस्वरूप सन 1894 में फ्रांस ने रूस से मित्रता कर ली तथा 1907 में इंग्लैंड भी फ्रांस तथा रूस के साथ मिल गया, इस गुट को त्रिवर्गीय मैत्री संघ का नाम दिया गया। इस तरह यूरोप में अलग अलग गुट बनने शुरू हुए और सम्पूर्ण यूरोप में तनाव का माहौल बनने लगा।
उपनिवेशों की भूख
जैसा कि हमने शरुआत में बताया युद्ध की शुरुआत भले ही जिन कारणों से हुई हो उसके पीछे महत्वपूर्ण भूमिका साम्राज्यवाद की ही थी। जर्मनी एवं इटली के एकीकरण के पूर्व ही कुछ यूरोपीय देशों ने अफ्रीका तथा एशिया के कई देशों में अपना साम्राज्य स्थापित कर दिया था। चूँकि एकीकरण के बाद जर्मनी तथा इटली शक्तिशाली राष्ट्रों के रूप में उभरे थे अतः उन्होंने भी अपने साम्राज्य को फैलाने की सोची। इसके अतिरिक्त जापान एक और नई शक्ति के रूप में उभर रहा था और उसे भी उपनिवेशों की आवश्यकता महसूस हुई।
जर्मनी, इटली तथा जापान के आ जाने से इन देशों तथा पूर्व से स्थापित साम्राज्यवादी देशों जैसे इंग्लैंड, फ्रांस आदि के मध्य साम्राज्यवादी प्रतिद्वंदिता की स्थिति (First World War in Hindi) उत्पन्न होने लगी जिसके फलस्वरूप मध्य अफ्रीका, चीन, तथा प्रशांत महासागर में स्थित अनेकों द्वीपों के बँटवारे को लेकर संघर्ष शुरू हो गया।
बाल्कन क्षेत्र
बाल्कन क्षेत्र दक्षिण पूर्वी यूरोप का वह भाग है जिसके अंतर्गत सर्बिया, मोंटेनेग्रो, क्रोएशिया, रोमानिया आदि देश आते हैं। इस क्षेत्र में ऑटोमन साम्राज्य (तुर्की) का शासन था। बाल्कन क्षेत्र के लोग मुख्यतः स्लाव जाति तथा ग्रीक चर्च को मानने वाले थे, जिन्हें ऑटोमन शासन स्वीकार नहीं था ये लोग स्वतंत्र राज्य स्थापित करना चाहते थे।
इसके चलते इस क्षेत्र में अशांति का माहौल व्याप्त था। चूँकि जर्मनी तथा इटली का एकीकरण हो जाने के बाद ऑस्ट्रिया जो कि पूर्वी यूरोप का एक साम्राज्यवादी देश था, के साम्राज्य में कमी आई थी अतः ऑस्ट्रिया ने बाल्कन क्षेत्र में अपना प्रभुत्व स्थापित कर इसकी भरपाई करने की सोची।
ऑस्ट्रिया के अलावा रूस भी इस क्षेत्र में अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहता था। रूस में रहने वाले लोग भी स्लाव जाति तथा ग्रीक चर्च को मानने वाले थे, जिस कारण रूसी लोगों तथा बाल्कन क्षेत्र के लोगों में एक धार्मिक तथा सांस्कृतिक संबंध स्थापित हो गया। रूस ने इस संबंध का फायदा उठाते हुए एक स्लाव आंदोलन की घोषणा की जिसका मुख्य उद्देश्य बाल्कन के सभी स्लाव लोगों को एकजुट करना तथा उन्हें ऑटोमन साम्राज्य से मुक्त करना था।
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इस आंदोलन के चलते बाल्कन क्षेत्र में रहने वाले स्लाव लोग उग्र आंदोलन करने लगे, जिसे दबाने के लिए ऑटोमन शासकों ने पुरजोर कोशिश की, परिणामस्वरूप तुर्की एवं रूस के मध्य संघर्ष हुआ जिसमें रूस विजयी रहा तथा दोनों में मध्य सेंट स्टेफानो की संधि हुई तथा इस क्षेत्र में रूस का व्यापक प्रभाव बड़ा।
हाँलाकि इंग्लैंड तथा रूस के मध्य मित्रता थी, जिसके बारे में हमने ऊपर चर्चा की है फिर भी इंग्लैंड नहीं चाहता था कि बाल्कन क्षेत्र पर रूस का एकाधिकार स्थापित हो अतः वह रूस की विजय से नाखुश था और उसने इस संधि का विरोध किया। फलस्वरूप बर्लिन में 1878 में एक सम्मेलन हुआ जिसे बर्लिन सम्मेलन के नाम से जाना जाता है। इसमें 13 युरोपियन देश तथा अमेरिका शामिल था।
इस सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य बाल्कन क्षेत्र में शांति स्थापित करना तथा बाल्कन देशों की सीमा निर्धारित करना था। सम्मेलन में रूस तथा तुर्की के मध्य हुई सेंट स्टेफानो की संधि को अमान्य घोषित कर दिया गया तथा यह प्रावधान हुआ की बोस्निया तथा हर्जेगोविना जो बाल्कन क्षेत्र के दो स्लाव बहुल क्षेत्र थे उन्हें ऑस्ट्रिया के अधीन कर दिया जाए।
इन दोनों प्रान्तों पर सर्बिया जो खुद को स्लाव जाति का पैतृक प्रतिनिधि समझता था अपनी दावेदारी प्रस्तुत कर रहा था किंतु इस दावेदारी को ठुकरा दिया गया। सर्बिया को यह बिल्कुल मंज़ूर नहीं था अतः उसने रूस के संरक्षण में सभी स्लावों को संगठित करना शुरू कर दिया, जिससे ऑस्ट्रिया के अन्दर स्लाव आंदोलन उग्र रूप लेने लगा।
युद्ध की शुरुआत
ऑस्ट्रिया में सर्बिया तथा रूस से संरक्षण प्राप्त स्लाव जाति के लोग उग्र आंदोलन कर रहे थे। स्थिति गंभीर तब हुई जब इस आंदोलन में आतंकवादी उपायों को भी अपनाया जाने लगा तथा ऑस्ट्रियाई पदाधिकारियों की हत्याएं की जाने लगी। इसी क्रम में बोस्निया की राजधानी सेराजेवो में ऑस्ट्रियाई राजकुमार फर्डिनेंड की स्लाव आंदोलनकारियों द्वारा हत्या कर दी गयी। यह स्थिति ऑस्ट्रिया के लिए बर्दाश्त से बाहर थी अतः उसने सर्बिया को इस हत्या का दोषी मानते हुए उसके खिलाफ युद्ध (The First World War in Hindi) की घोषणा कर दी।
चूँकि सर्बिया को रूस का संरक्षण प्राप्त था तथा रूस के साथ इंग्लैंड तथा फ्रांस थे वहीं जर्मनी, जो कि पूर्व में एक संधि के तहत ऑस्ट्रिया के पक्ष में था एवं तुर्की दोनों ने ऑस्ट्रीया के पक्ष में जाने का निर्णय लिया। अतः युद्ध की घोषणा होने के बाद सभी देश अपने-अपने मित्र देशों की तरफ से युद्ध में कूद पड़े और इस प्रकार प्रथम विश्वयुद्ध (First World War in Hindi) की शुरुआत हुई।
युद्ध का अंत (End of First world war in Hindi)
रूस सर्बिया की तरफ से युद्ध मे लड़ रहा था परंतु इसी दौरान रूस में क्रांति हुई जिस कारण रूस में बोल्शेविक सत्ता में आए, उन्होंने युद्ध में रूस की भागीदारी समाप्त करने की घोषणा की तथा जर्मनी के साथ संधि कर ली। जिसके अनुसार रूस ने अपने समस्त पश्चिमी प्रान्त जर्मनी को दे दिए। इस प्रकार रूस के पीछे हटने से जर्मनी की स्थिति मजबूत हुई।
अमेरिका युद्ध में शामिल नहीं था परंतु वह मित्र राष्ट्रों (इंग्लैंड, फ्रांस) को आवश्यक संसाधन उपलब्ध करा रहा था। इससे जर्मनी रुष्ट हो गया तथा उसने एक अमरीकी यात्री जहाज को मालवाहक जहाज समझकर डुबा दिया। फलस्वरूप अमेरिका भी मित्र राष्ट्रों की तरफ से युद्ध में जर्मनी के खिलाफ कूद पड़ा। जर्मनी की तरफ से युद्ध कर रहे देश एक एक कर पिछड़ रहे थे तुर्की, ऑस्ट्रिया, हंगरी द्वारा आत्मसमर्पण कर दिया गया। बिगड़ती हुई स्थिति को देखते हुए जर्मनी ने भी घुटने टेक दिए और 28 जुलाई 1914 से शुरू हुआ युद्ध अक्टूबर 1918 में पेरिस शांति सम्मेलन के रूप में समाप्त हुआ।
पेरिस शांति सम्मेलन
विश्व युद्ध में जर्मनी एवं उसके सहयोगी देश ऑस्ट्रिया, तुर्की, हंगरी आदि की हार हुई तथा इस युद्ध का अंत पेरिस शांति सम्मेलन के साथ हुआ, जिसमें पराजित राष्ट्रों के साथ समझौते के रूप में पाचँ संधियां की गई। ये पाँच संधियाँ निन्म हैं
- वर्साय की संधि ( जर्मनी के साथ )
- सेंट जर्मेन की संधि ( ऑस्ट्रिया के साथ )
- निउली की संधि ( बुल्गारिया के साथ )
- त्रियनो की संधि ( हंगरी के साथ )
- सेब्रे की संधि ( तुर्की के साथ)
वर्साय की संधि
उक्त सभी संधियों में सबसे महत्वपूर्ण थी वर्साय की संधि, जिसे जर्मनी के साथ किया गया था। इसकी सभी शर्तों को जर्मनी के लिए स्वीकार करना अनिवार्य कर दिया। संधि की शर्तों का उल्लंघन होने पर ब्रिटिश प्रधानमंत्री लॉयड जॉर्ज द्वारा जर्मनी के साथ पुनः युद्ध करने की धमकी दी। हाँलाकि संधि की शर्तें अत्यधिक कठोर एवं अपमानजनक थी फिर भी जर्मनी को उन्हें स्वीकार करना पड़ा। आइये जानते हैं कौन कौन सी शर्ते थी जो मित्र राष्ट्रों द्वारा जर्मनी पर थोपी गयी।
(क) जर्मनी का लगभग 15 फीसदी हिस्सा, जिसमें 10 फीसदी जर्मन आबादी निवास करती थी उससे छीन लिया गया। इनमें फ्रांस से छीने दो प्रान्त अलसास व लॉरेन भी शामिल थे, जिन्हें पुनः फ्रांस को दे दिए गए। अन्य कई क्षेत्रों जैसे लिथुआनिया, लातविया, चेकोस्लोवाकिया आदि को भी जर्मनी के प्रभुत्व से आजाद कर दिया गया।
(ख) पूर्वी जर्मनी में मित्र राष्ट्रों ने स्वतंत्र पोलैंड का निर्माण किया। डानजिंग को स्वतंत्र नगर घोषित कर उसे राष्ट्र संघ के नियंत्रण में रखा गया तथा इसके बंदरगाह का उपयोग करने का अधिकार पोलैंड को दिया गया।
(ग) चूँकि फ्रांस जर्मन सेना से भयभीत था अतः उसने माँग की, कि उसकी सीमा से लगे जर्मन क्षेत्र राइनलैंड पर 31 मील की दूरी तक जर्मनी कोई सैन्य गतिविधि संचालित नहीं करेगा।
(घ) जर्मनी के कोयला समृद्ध क्षेत्र सार को राष्ट्रसंघ ने अपने नियंत्रण में ले लिया तथा उसे फ्रांस को दे दिया गया। यह भी प्रावधान किया गया कि 15 वर्षो के बाद यदि जनमत संग्रह में इस क्षेत्र के लोग जर्मनी में जाना चाहे तो जर्मनी फ्रांस से इस क्षेत्र को निश्चित कीमत देकर वापस ले सकता है।
(ङ) जर्मन सेना की अधिकतम संख्या 1 लाख तय की गई तथा जर्मनी का प्रधान सैन्य कार्यालय समाप्त कर दिया गया।
(च) सैन्य सामग्री तथा युद्धोपयोगी वस्तुओं के उत्पादन पर प्रतिबंध लगा दिया गया। यह तय किया गया कि जर्मन नौसेना में कुल 6 युद्धपोत एवं इतने ही गश्ती जहाज़ होंगे। इस प्रकार जर्मनी को सैन्य दृष्टि से अपाहिज बनाने की कोशिश की गई
(छ) विश्वयुद्ध का जिम्मेदार जर्मनी को ठहराते हुए उस पर अन्य देशों की क्षतिपूर्ति हेतु भारी जुर्माना लगाया गया जिसके तहत उसे 1921 तक 5 अरब डॉलर जमा करने का आदेश दिया गया।
जर्मनी पर सैन्य प्रतिबंध लगा दिए गए, उसके राजस्व के महत्वपूर्ण क्षेत्रों को अन्य देशों को दे दिया गया। अपनी प्रतिकूल परिस्थितियों के चलते जर्मनी ने ये शर्तें स्वीकार अवश्य कर ली थी किन्तु किसी स्वाभिमानी देश के लिए इतनी अपमानजनक शर्तों के साथ अधिक समय तक जीना आसान नहीं था। अतः 20 वर्षों में ही पेरिस शांति सम्मेलन के नाम पर बोया गया विष द्वितीय विश्वयुद्ध के रूप में फुट पड़ा।
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युद्ध के परिणाम (Effects of First world war in Hindi)
(क) हाँलाकि किसी भी युद्ध के परिणाम नकारात्मक ही होते हैं, किंतु इस युद्ध के कुछ सकारात्मक परिणाम भी सामने निकलकर आए। युद्ध के चलते निरंकुश शासकों का अंत हुआ तथा गणराज्यों की स्थापना हुई इसका प्रमुख उदाहरण रूसी क्रांति के फलस्वरूप वहाँ जारशाही का अंत था। इसके अलावा युद्ध में अपनी हार को देखते हुए जर्मन सम्राट विलियम कैसर ने भी सत्ता छोड़ दी।
(ख) इसका एक अन्य महत्वपूर्ण परिणाम यह हुआ कि अमेरिका विश्व मे शक्तिशाली राष्ट्र बनकर उभरा चूँकि युद्ध के कारण अधिकतर यूरोपीय देशों के धन एवं संसाधनों का काफी नुकसान हुआ तथा उन्हें युद्ध में खर्चने के लिए अमेरिका से अतिरिक्त धन एवं आवश्यक संसाधनों का आयात करना पड़ा, जिसके चलते वे कर्ज़ में डूब गए तथा अमेरिका की महत्ता में वृद्धि हुई।
(ग) चूँकि युद्ध से पूर्व कोई अंतरराष्ट्रीय संस्था नहीं थी जो दो देशों के मध्य विवाद को निपटा सके, अतः युद्ध के बाद अंतरराष्ट्रीय शांति को ध्यान में रखते हुए अंतरराष्ट्रीय संगठन के रूप में राष्ट्रसंघ की स्थापना की गई।
(घ) सैन्य प्रौद्योगिकी के विकास ने अविष्कारों को भी जन्म दिया वैज्ञानिकों द्वारा विज्ञान के क्षेत्र में विशेष प्रगति की गई
युद्ध में भारत की भूमिका
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारत पर ब्रिटेन का शासन था अतः भारत ने भी जर्मनी के विरुद्ध युद्ध में भाग लिया। युद्ध में शामिल होने की एवज में ब्रिटेन द्वारा हिंदुस्तान को सत्ता हस्तांतरण का प्रलोभन दिया गया जिसे ब्रिटेन ने युद्ध के बाद पूरा नहीं किया। युद्ध में हिंदुस्तान की भूमिका की बात करें तो लगभग 13 लाख भारतीय सैनिकों ने ब्रिटेन की तरफ से युद्घ किया जिनमें लगभग 74,000 से अधिक सैनिक शहीद हुए और इससे अधिक संख्या में जख्मी हुए।
भारतीय सैनिकों ने विभिन्न मोर्चों फ्रांस, बेल्जियम, गालीपोली, इजिप्ट आदि जगहों पर ब्रिटेन के पक्ष में युद्ध लड़ा। भारतीय जवानों की वीरता को देखते हुए 6 जवानों को विक्टोरिया क्रॉस जो कि इंग्लैंड का सबसे बड़ा सैनिक सम्मान है से सम्मानित किया गया।
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