भारतीय न्यायपालिका, इसकी संरचना एवं कार्यप्रणाली (Indian Judiciary System)

प्रत्येक समाज में “कानून का शासन” स्थापित करने, व्यक्तियों, समूहों, सरकारों आदि के मध्य उत्पन्न किसी विवाद को निपटाने तथा नागरिकों के अधिकारों को संरक्षित करने के लिए एक ऐसे स्वतंत्र निकाय की आवश्यकता होती है, जो विधायिका तथा कार्यपालिका से प्रभावित हुए बिना निष्पक्ष तरीके से अपने दायित्वों का निर्वहन करे। लोकतंत्र के तीसरे स्तम्भ के रूप में ऐसे ही निकाय की स्थापना की गई है, जिसे हम न्यायपालिका (Judiciary System in Hindi) के रूप में जानते हैं।

सामान्यतः न्यायपालिका को केवल व्यक्तियों अथवा संस्थाओं के विवादों को सुलझाने वाली संस्था के रूप में देखा जाता है, जबकि भारतीय न्यायपालिका का कार्यक्षेत्र इससे कहीं अधिक विस्तृत है। नमस्कार दोस्तों स्वागत है आपका जानकारी ज़ोन में, आज इस लेख में चर्चा करेंगे भारतीय न्यायपालिका (Indian Judiciary System) की विस्तार से समझेंगे इसकी संरचना, कार्यक्षेत्र एवं कार्यप्रणाली को।

भारतीय न्यायपालिका

भारतीय शासन व्यवस्था मुख्यतः तीन स्तंभों यथा विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका से मिलकर बनी हुई है। विधायिका कानून बनाने का कार्य करती है तथा कार्यपालिका उस कानून का प्रवर्तन कराने का कार्य, जबकि न्यायपालिका किसी बनाए गए कानूनों की व्याख्या करने तथा कानून के उल्लंघन पर दोषियों के लिए सज़ा का प्रावधान करती है। इन तीनों के कामकाज एक दूसरे से स्वतंत्र हैं, तथा प्रत्येक के पास कुछ विशेषाधिकार एवं शक्तियाँ हैं।

हाँलाकि हमारा देश संघीय व्यवस्था पर चलता है, अर्थात भारत अलग-अलग राज्यों का एक संघ है, किंतु भारत की न्याय व्यवस्था संघीय न होकर एकीकृत है, अतः भारत के किसी भी राज्य में निवास करने वाले नागरिक के लिए एक ही सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था है।

न्यायपालिका की संरचना

न्यायपालिका की संरचना से आशय विभिन्न स्तरों पर अलग-अलग न्यायालयों से है। भारत की न्यायपालिका की संरचना शंकु के आकार की है, जिसमें शिखर पर सर्वोच्च न्यायालय, उसके बाद उच्च न्यायालय तथा अंत में अधीनस्थ न्यायालय शामिल हैं।

  • सर्वोच्च न्यायालय
  • उच्च न्यायालय
  • अधीनस्थ न्यायालय

अधीनस्थ न्यायालय (Subordinate Courts)

राज्यों में न्यायपालिका के रूप में एक उच्च न्यायालय तथा अधीनस्थ न्यायालय होते हैं, चूँकि ये उच्च न्यायालय के अधीन होते हैं अतः इन्हें अधीनस्थ न्यायालय कहा जाता है। अधीनस्थ न्यायालयों न्यायिक सेवा से सम्बद्ध व्यक्ति की पदस्थापन, पदोन्नति एवं अन्य मामलों पर नियंत्रण राज्य के उच्च न्यायालय का होता है। ये न्यायालय जिला एवं निम्न स्तरों पर कार्य करते हैं।

जिला न्यायालय

न्यायपालिका में उच्च न्यायालयों के बाद जिला अदालतें आती हैं, जो जिला स्तर पर मामलों की सुनवाई करती हैं। संविधान में इनका उल्लेख अनुछेद 233 से 237 तक किया गया है। जिला न्यायालय का न्यायाधीश जिले का सबसे बड़ा न्यायिक अधिकारी होता है, जिसकी नियुक्ति तथा पदोन्नति राज्यपाल द्वारा उस राज्य के उच्च न्यायालय के परामर्श से की जाती है। जिला न्यायाधीश के पास न्यायिक एवं प्रशासनिक दोनों शक्तियां होती हैं, उसके पास जिले के अन्य अधीनस्थ न्यायालयों का निरीक्षण करने की शक्ति भी होती है।

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जिला न्यायालय सिविल एवं आपराधिक मामलों की सुनवाई कर सकता है तथा इसके फैसले को उच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है। जिला न्यायाधीश किसी अपराधी को उम्रकैद से लेकर मृत्युदंड तक की सज़ा सुना सकता है। गौरतलब है कि, मृत्युदंड देने से पहले इस फैसले का राज्य के उच्च न्यायालय द्वारा अनुमोदन प्राप्त होना आवश्यक होता है। जिला एवं सत्र न्यायाधीश के नीचे दीवानी मामलों के लिए अधीनस्थ न्यायाधीश का न्यायालय तथा फौजदारी मामलों के लिए मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी का न्यायालय होता है।

लोक अदालतें

लोक अदालत एक ऐसा मंच है, जहाँ ऐसे मामलों की सुनवाई होती है, जो या तो किसी अदालत के समक्ष नहीं आए हैं या किसी न्यायालय में लंबित हैं। इन अदालतों की स्थापना का मुख्य उद्देश्य छोटे मामलों को कम समय, कम खर्च तथा सौहार्दपूर्ण तरीके से निपटाना है, ताकि ऊपरी अदालतों में अनावश्यक कार्यभार न बढ़े तथा पीड़ित व्यक्ति को अनावश्यक इंतजार न करना पड़े।

लोक अदालत को वैधानिक दर्जा देने के लिए वैधानिक सेवाएं प्राधिकरण अधिनियम 1987 पारित किया गया है। इन अदालतों में मुख्यतः विवाह संबंधित या पारिवारिक मामले, श्रम विवाद, पेंशन मामले, बैंक वसूली के मामले, भूमि अधिग्रहण से जुड़े मामले आते हैं।

ग्राम्य न्यायालय

न्यायपालिका की सबसे निचली इकाई ग्राम्य न्यायालय हैं। जो ग्राम स्तर के मामलों की सुनवाई कर नागरिकों को उनके द्वार पर न्याय उपलब्ध कराती है। इसकी शुरुआत ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008 के तहत की गई है। इसके अनुसार ग्राम न्यायालय प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट की अदालत होती है तथा न्यायालय की अध्यक्षता के लिए एक न्यायाधिकारी होता है। न्यायाधिकारी की नियुक्ति उच्च न्यायालय की सहमति द्वारा राज्य सरकारें करती हैं। इन न्यायालयों के पास फौजदारी तथा दीवानी दोनों प्रकार के मामलों की सुनवाई का अधिकार होता है।

उच्च न्यायालय (High Court)

जिला एवं अन्य अधीनस्थ न्यायालयों के ऊपर तथा किसी राज्य का शीर्ष न्यायालय, उच्च न्यायालय होता है। भारत में उच्च न्यायालयों का गठन सर्वप्रथम 1862 में किया गया, जिसके अंतर्गत कलकत्ता, बम्बई तथा मद्रास उच्च न्यायालयों की स्थापना हुई। आज़ादी के बाद भारत के संविधान में प्रत्येक राज्य के लिए एक उच्च न्यायालय की व्यवस्था की गई है। हालाँकि सातवें संविधान संशोधन 1956 के अनुसार संसद को यह अधिकार है कि, वह दो या दो से अधिक राज्यों या किसी संघ शासित प्रदेश के लिए साझा उच्च न्यायालय स्थापित कर सके।

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किसी उच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य न्यायाधीश होते हैं, जिनकी संख्या समय समय पर राष्ट्रपति द्वारा आवश्यकता के अनुसार तय की जाती है। उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा संबंधित राज्य के राज्यपाल से परामर्श के बाद की जाती है एवं अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एवं संबंधित राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श द्वारा करता है। गौरतलब है कि, यहाँ सर्वोच्च न्यायालय तथा संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से आशय मुख्य न्यायाधीश तथा उपरोक्त न्यायालयों के दो वरिष्ठ न्यायाधीशों के परामर्श से है।

उच्च न्यायालय की स्वतंत्रता

कार्यपालिका के हस्तक्षेप से स्वतंत्र रखने के लिए न्यायपालिका को आवश्यक स्वतंत्रता दी गयी है, जिसके अंतर्गत न्यायाधीशों के विशेषाधिकारों तथा न्यायालय की शक्तियों को सुरक्षा प्रदान की गई है। ऐसे कुछ महत्वपूर्ण अधिकार निम्न हैं-

(क) इसके तहत संविधान द्वारा उच्च न्यायालय के न्यायधीशों की नियुक्ति, ट्रांसफर, वेतन एवं भत्ते तथा कार्यकाल की सुरक्षा दी गयी है। उच्च न्यायालय के न्यायाधीश 62 वर्ष की उम्र तक पद पर रहते है। उनको केवल संविधान में उल्लेखित विधि, जिनमें सिद्ध कदाचार एवं अक्षमता शामिल हैं, के आधार पर ही राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकता है अन्यथा नहीं।

(ख) यदि वेतन, भत्ते, पेंशन, अवकाश तथा अन्य विशेषाधिकारों की बात करें तो इनमें संसद समय समय पर परिवर्तन अवश्य कर सकती है, किंतु ऐसे किसी परिवर्तन द्वारा इन सुविधाओं में (वित्तीय आपातकाल की स्थिति को छोड़कर) किसी भी परिस्थिति में कमी नहीं की जा सकती। सरल शब्दों में कहें तो संसद केवल वेतन, भत्ते तथा अन्य विशेषाधिकारों में बढ़ोत्तरी कर सकती है कमी नहीं।

(ग) किसी न्यायाधीश पर महाभियोग चलाए जाने के अतिरिक्त न्यायाधीशों के कार्य पर किसी राज्य विधानमंडल एवं संसद में चर्चा नहीं की जा सकती।

(घ) उच्च न्यायालय किसी भी व्यक्ति को अपनी अवमानना करने पर दंडित कर सकता है। इस प्रकार कोई उच्च न्यायालय अपनी गरिमा एवं प्राधिकार को बनाए रखता है।

(ङ) कार्यपालिका के हस्तक्षेप से बचने के लिए संविधान उच्च न्यायालय को यह अधिकार देता है कि, किसी उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश अपने न्यायालय में कर्मचारियों की नियुक्ति कर सके।

(च) किसी भी परिस्थिति में संसद या राज्य विधानमंडल उच्च न्यायालय के न्यायिक शक्तियों जो संविधान में उल्लेखित हैं, में कटौती नहीं कर सकते।

उच्च न्यायालय का कार्यक्षेत्र

राज्यों के उच्च न्यायालयों का अधिकार क्षेत्र बहुत विस्तृत है अर्थात उच्च न्यायालयों को अपीलों की सुनवाई के अतिरिक्त अन्य कई अधिकार प्राप्त हैं, जिनमे कुछ निम्न हैं।

(क) उच्च न्यायालय को यह अधिकार है कि, वह किसी मामले को बिना किसी अपील के अपने संज्ञान में लेते हुए सुनवाई करे।

(ख) यह एक अपीलीय न्यायालय है, जहाँ इसके राज्यक्षेत्र में आने वाले अधीनस्थ न्यायालयों के विरुद्ध सुनवाई की जाती है। ऐसे मामले सिविल या आपराधिक कोई भी हो सकते हैं।

(ग) उच्च न्यायालय को नागरिकों के मूल अधिकारों एवं कुछ अन्य कानूनी अधिकारों को प्रवर्तित कराने के सम्बंध में न्यायादेश या रिट जारी करने का अधिकार है।

(घ) यह अपने अधीनस्थ न्यायालयों के पर्यवेक्षक के रूप में भी कार्य करता है और उन पर नियंत्रण करता है, जिसके अनुसार उच्च न्यायालय अपने किसी अधीनस्थ न्यायालय से किसी मामले को अपने पास मँगवा सकता है तथा अधीनस्थ न्यायालयों के लिए नियम तैयार और जारी कर सकता है

() उच्च न्यायालय के पास एक अन्य महत्वपूर्ण शक्ति न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति है इसके अंतर्गत न्यायालय राज्य विधानमंडल या संसद के किसी कानून को यदि वे संविधान का उल्लंघन करते हों तो उन्हें निरस्त कर सकता है।

सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court)

भारतीय न्यायपालिका के शीर्ष में भारत का सर्वोच्च न्यायालय है। भारत के सभी उच्च न्यायालय इसके अधीन हैं अर्थात यह भारत का अंतिम अपीलीय न्यायालय है। इसके फैसले को कहीं भी चुनौती नहीं दी जा सकती। संविधान में अनुच्छेद 124 से 147 तक सर्वोच्च न्यायालय का उल्लेख किया गया है। 

आजादी से पहले भारत सरकार अधिनियम 1935 के तहत एक संघीय न्यायालय कि स्थापना का प्रावधान किया गया और इसके तहत 1 अक्टूबर 1937 को भारत में एक संघीय न्यायालय की स्थापना की गई। देश के आजादी के बाद उच्चतम न्यायालय का उद्घाटन 28 जनवरी 1950 को दिल्ली में किया गया।

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वर्तमान में उच्चतम न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश सहित कुल 31 न्यायाधीश हैं। 1993 में दूसरे न्यायाधीश मामले का फैसला सुनाते हुए न्यायालय ने यह व्यवस्था करी कि, उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीश को ही मुख्य न्यायाधीश के रूप में राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाएगा तथा अन्य न्यायधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति मुख्य न्यायाधीश तथा 4 अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीशों, जिसे कॉलेजियम कहा जाता है, की सलाह पर करेगा।

सर्वोच्च न्यायालय की स्वतंत्रता

संविधान ने कार्यपालिका के अतिक्रमण, दबाव या हस्तक्षेप से बचाने तथा बिना पक्षपात किये फैसले सुनाने के लिए उच्च न्यायालय की तरह उच्चतम न्यायालय (Judiciary system in Hindi) को भी लगभग हर क्षेत्र में स्वतंत्रता प्रदान की है। चाहे वह न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर हो, न्यायाधीशों को दी जाने वाली सुविधाएं, कार्यकाल या उनके विशेषाधिकार तथा शक्तियां हो, न्यायाधीशों के आचरण पर बहस हो अथवा अपने कर्मचारियों की नियुक्ति का अधिकार हो।

सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियाँ

उच्च न्यायालयों की तरह सर्वोच्च न्यायालय को भी संविधान द्वारा व्यापक अधिकार प्रदान हैं।

(क) उच्चतम न्यायालय को यह अधिकार है कि, वह किसी मामले को बिना किसी अपील के अपने संज्ञान में लेते हुए सुनवाई करे।

(ख) उच्चतम न्यायालय को संविधानिक मामलों, दीवानी मामलों तथा आपराधिक मामलों में अपीलीय अधिकार समेत विशेष अनुमति द्वारा अपील करने का अधिकार प्राप्त है।

(ग) उच्चतम न्यायालय राष्ट्रपति को किसी सार्वजनिक महत्व के मामले में या कुछ विशेष मामलों जैसे कोई संविधानिक संधि, समझौते, आदि में राष्ट्रपति द्वारा माँगे जाने पर सलाह देता है।

(घ) उच्चतम न्यायालय केंद्र या राज्य के किसी भी विधायी या कार्यकारी आदेश की संवैधानिकता की जाँच कर सकता है तथा ऐसे आदेश या कानून यदि संविधान के खिलाफ हों तो उन्हें निरस्त कर सकता है।

() उच्चतम न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत किसी नागरिक के मूल अधिकारों के हनन होने की स्थिति में न्यायादेश या रिट जारी करता है तथा उसके मूल अधिकारों को प्रवर्तित करता है।

(च) यह राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति के निर्वाचन के संबंध में उत्पन्न किसी प्रकार के विवाद का निपटारा करता है और इस संबंध में यह मूल तथा अंतिम व्यवस्थापक है।

(छ) यह अपने स्वयं के फैसले की समीक्षा करने की शक्ति रखता है अर्थात यह अपने पूर्व के फैसले पर अडिग रहने के लिए बाध्य नहीं है तथा इससे हटकर फैसले ले सकता है।

(ज) यह संविधान का इकलौता व्याख्याता है। उच्चतम न्यायालय ही संविधान के विभिन्न उपबंधों एवं उसमें निहित तत्वों को अंतिम रूप देता है।

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