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क्या हैं किसी गिरफ़्तार किये गए व्यक्ति के अधिकार (Rights of an Arrested Person)

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समाज में शांति व्यवस्था स्थापित करने अथवा एक भयमुक्त एवं सुरक्षित वातावरण तैयार करने के लिए प्राचीन काल से ही पुलिस (Police) की व्यवस्था की गई है। पुलिस का कर्तव्य है कि, कोई भी व्यक्ति, जो किसी प्रकार का अपराध करता है अथवा समाज में अव्यवस्था का कारण बनता है उसे गिरफ़्तार करे तथा न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करे।

किन्तु कोई भी व्यवस्था तभी तक प्रासंगिक है जब तक कि, उसका दुरुपयोग नहीं किया जाए। पुलिस द्वारा अपनी शक्तियों अथवा अधिकार क्षेत्र का गलत इस्तेमाल न किया जाए इसके लिए किसी आम नागरिक की भाँति एक अभियुक्त (Accused) या गिरफ्तार किये गए व्यक्ति को भी कुछ अधिकार प्रदान किये गए हैं। ऐसे ही कुछ अधिकारों की आज इस लेख के माध्यम से हम चर्चा करने जा रहे हैं, जो देश के भीतर किसी गिरफ़्तार किये गए व्यक्ति को प्राप्त हैं।

गिरफ़्तारी क्या है अथवा कौन कर सकता है?

किसी व्यक्ति को गिरफ़्तार करना उस व्यक्ति को उसकी स्वतंत्रता से वंचित करने की एक प्रक्रिया है। कोई भी व्यक्ति, जो कानून के विरुद्ध कोई कृत्य (अपराध) करता है उसे अपराध की छानबीन करने तथा न्यायालय में पेश किये जाने के उद्देश्य से गिरफ़्तार किया जाता है। कानून में गिरफ़्तारी करने का अधिकार सामान्यतः मजिस्ट्रेट एवं पुलिस को दिया गया है, जबकि कुछ विशेष परिस्थितियों में आम नागरिक भी किसी अपराधी की गिरफ़्तारी कर सकता है।

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भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता, मजिस्ट्रेट एवं पुलिस के अतिरिक्त किसी नागरिक को भी एक अपराधी की गिरफ़्तारी करने का अधिकार देता है, इसे “प्राइवेट व्यक्ति द्वारा गिरफ़्तारी” कहा जाता है। संहिता की “धारा 43” के तहत कोई व्यक्ति ऐसे व्यक्ति को गिरफ़्तार कर सकता है, जो उसकी मौजूदगी में कोई संज्ञेय या गैर-जमानती अपराध करता है या पहले से घोषित कोई अपराधी है।

अभियुक्त या गिरफ़्तार व्यक्ति के अधिकार

किसी अभियुक्त को प्राप्त अधिकारों को समझने से पहले यह जान लेना आवश्यक है कि, इन अधिकारों का उल्लेख कहाँ किया गया है। हमारा संविधान हमें कुछ मूल अधिकार (Fundamental Rights) प्रदान करता है, जिनमें स्वतंत्रता का अधिकार एक महत्वपूर्ण अधिकार है। इस अधिकार के तहत प्रत्येक नागरिक को प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता तथा अवैध गिरफ़्तारी एवं निरोध (Detain) किये जाने से संरक्षण का अधिकार प्रदान किया गया है।

मूल अधिकारों के अतिरिक्त भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) में भी कई धाराओं जैसे 41, 42, 46, 50, 56, 57, 167 आदि के तहत व्यक्तियों को कुछ अधिकार प्रदान किए गए हैं, जिनका इस्तेमाल गिरफ़्तारी के दौरान व्यक्ति द्वारा किया जा सकता है। आइए विस्तार से समझते हैं इन अधिकारों को

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गिरफ़्तारी का कारण जानने का अधिकार

इन अधिकारों में सबसे महत्वपूर्ण एवं प्राथमिक अधिकार है गिरफ़्तारी का कारण जानने का अधिकार, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 22(ख) के तहत किसी व्यक्ति को, जो गिरफ्तार किया गया है ऐसी गिरफ्तारी के कारणों से यथाशीघ्र अवगत कराए बिना अभिरक्षा (Custody) में नहीं रखा जाएगा।

इसके अलावा भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की “धारा 50” के तहत यदि किसी व्यक्ति को वारेंट के बिना गिरफ़्तार किया जा रहा हो तो उस व्यक्ति को गिरफ़्तारी के कारण अथवा आधार के विषय में तत्काल बताया जाना चाहिए। वहीं “धारा 75” के अनुसार यदि गिरफ़्तारी वारेंट के माध्यम से की जा रही हो तो गिरफ़्तार करने वाला अधिकारी अभियुक्त को वारेंट के सार की सूचना देगा अथवा मांगे जाने पर उसे अभियुक्त को दिखाएगा।

अपराधों को मुख्यतः दो श्रेणियों कम गंभीर या असंज्ञेय अपराध तथा अधिक गंभीर एवं संज्ञेय अपराध में विभाजित किया गया है। असंज्ञेय अपराधों की स्थति में किसी व्यक्ति को गिरफ़्तार करने के लिए पुलिस के पास गिरफ़्तारी का वारेंट (Arrest Warrant) होना आवश्यक है अतः यदि अपराध असंज्ञेय हो तो व्यक्ति गिरफ़्तारी के वारेंट की माँग कर सकता है। किन्तु संज्ञेय अपराधों की स्थिति में पुलिस को गिरफ़्तारी करने के लिए किसी वारेंट की आवश्यकता नहीं होती है।

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परिवार जनों को गिरफ़्तारी की सूचना देने का अधिकार

भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की “धारा 50क” के तहत गिरफ़्तार किये गए व्यक्ति का यह अधिकार है कि, उसकी गिरफ़्तारी की सूचना जैसे गिरफ़्तारी का कारण, वह स्थान जहाँ गिरफ़्तार किया गया व्यक्ति रखा गया है आदि तत्काल उसके परिजनों अथवा गिरफ़्तार व्यक्ति द्वारा नामित किसी व्यक्ति को दी जाए।

गिरफ़्तारी का ज्ञापन बनवाने का अधिकार

किसी व्यक्ति, जिसे गिरफ़्तार किया जा रहा हो उसे दंड प्रक्रिया संहिता की “धारा 41ख” के तहत अधिकार है कि, वह गिरफ़्तारी के दौरान गिरफ़्तारी का ज्ञापन (Memorandum of Arrest) तैयार करवाए।

इस ज्ञापन में गिरफ़्तार करने वाले अधिकारी का नाम, गिरफ़्तारी का कारण, समय, स्थान आदि बातें दर्ज़ होंगी तथा इस ज्ञापन को कम से कम एक व्यक्ति जो अभियुक्त के परिवार अथवा उस परिक्षेत्र (Locality) का सम्मानित सदस्य हो से अनुप्रमाणित (Attest) तथा गिरफ़्तार किये गए व्यक्ति द्वारा प्रतिहस्ताक्षरित (Countersigned) करवाया जाएगा।

चिकित्सा जाँच करवाने का अधिकार

भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की “धारा 54” के तहत कोई गिरफ़्तार किया गया व्यक्ति मजिस्ट्रेट के समक्ष अथवा अभिरक्षा के दौरान किसी भी वक्त अपनी चिकित्सा जाँच (Medical Examine) करवाने की माँग कर सकता है।

यदि कोई गिरफ्तार व्यक्ति यह दावा करता है कि, उसके शरीर की चिकित्सा जाँच से कुछ ऐसे तथ्य सामने आएंगे, जो अपराध के उसके द्वारा किये जाने के दावों को खारिज कर सकते हैं अथवा कुछ ऐसे साक्ष्य सामने आ सकते हैं, जो उसके शरीर के खिलाफ़ किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किये गए अपराध की ओर संकेत करते हैं, इस स्थिति में मजिस्ट्रेट अभियुक्त की चिकित्सा जाँच के आदेश दे सकता है।

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सामान्यतः अभियुक्त की चिकित्सा जाँच के आदेश दे दिए जाते हैं, किन्तु कुछ स्थितियों में, जब मजिस्ट्रेट को यह विश्वास हो कि, चिकित्सा जाँच की माँग केवल न्याय प्रक्रिया में विलंब करने के उद्देश्य से की जा रही है तब मजिस्ट्रेट द्वारा ऐसी माँग को खारिज भी किया जा सकता है।

मौन रहने का अधिकार

किसी व्यक्ति को गिरफ़्तार किये जाने के पश्चात उसके पास मौन रहने का अधिकार है। मौन रहने से आशय है कि, गिरफ़्तार व्यक्ति को पुलिस द्वारा उससे पूछी गई किसी बात का उत्तर देने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा। संविधान में वर्णित मूल अधिकारों (अनुच्छेद 20ख) के अनुसार किसी व्यक्ति को स्वयं के खिलाफ़ गवाही देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।

अपनी इच्छा के अधिवक्ता से परामर्श करने का अधिकार

संविधान का अनुच्छेद 22(क) किसी नागरिक को यह अधिकार देता है कि, उसकी गिरफ़्तारी किये जाने की स्थिति में वह अपनी इच्छानुसार किसी भी अधिवक्ता या वकील से परामर्श ले सके। गिरफ़्तार व्यक्ति को यह अधिकार उसकी गिरफ़्तारी के क्षण से ही प्राप्त हो जाता है।

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दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की “धारा 303” में भी प्रावधान है कि, कोई व्यक्ति जिसके खिलाफ संहिता के तहत कार्यवाही शुरू की जाती है, उसका बचाव उसकी पसंद के वकील द्वारा किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39A तथा दंड प्रक्रिया संहिता की “धारा 304” के तहत ऐसे व्यक्ति, जो निजी कानूनी सहायता प्राप्त करने अथवा निजी वकील नियुक्त करने में असमर्थ हैं उन्हें राज्य के खर्च पर मुफ़्त कानूनी सहायता उपलब्ध करवाई जानी चाहिए।

हुसैनारा खातून बनाम बिहार गृह सचिव मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि, मुफ्त कानूनी सेवाओं का अधिकार स्पष्ट रूप से किसी अपराध के आरोपी व्यक्ति के लिए उचित, निष्पक्ष एवं न्यायसंगत प्रक्रिया का एक अनिवार्य घटक है और इसे अनुच्छेद 21 की गारंटी में निहित माना जाना चाहिए।

चौबीस घंटों के भीतर मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किये जाने का अधिकार

दंड प्रक्रिया संहिता की “धारा 57” किसी गिरफ़्तार व्यक्ति को अनावश्यक देरी किये बिना (गिरफ़्तारी के स्थान से न्यायालय तक जाने में लगे समय को छोड़कर) 24 घंटों के भीतर न्यायालय में प्रस्तुत करने के संबंध में प्रावधान करती है, इसके अलावा संविधान के अनुच्छेद 22(ख) के तहत भी गिरफ़्तार किये गए व्यक्ति का यह अधिकार है कि, उसे 24 घंटों के भीतर संबंधित मजिस्ट्रेट के न्यायालय में प्रस्तुत किया जाए।

यदि कोई पुलिस अधिकारी गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर गिरफ्तार व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करने में विफल रहता है, तो उसे गलत तरीके से हिरासत में लेने का दोषी माना जाएगा और उस पर कार्यवाही की जा सकती है। मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किये जाने पर मजिस्ट्रेट अपराध के अनुसार व्यक्ति को जमानत अथवा पुलिस हिरासत (Police Custody) में भेज सकते हैं, जो 15 दिन से अधिक नहीं होगी।

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अपराध की प्रकृति गंभीर होने की स्थिति में न्यायालय सबूतों या गवाहों के साथ छेड़छाड़ को रोकने के लिए अभियुक्त को पंद्रह दिनों की पुलिस हिरासत के अतिरिक्त अधिकतम 60 दिनों (यदि अपराध के लिए अधिकतम सजा 10 वर्ष है) या 90 दिनों (यदि अपराध 10 वर्ष से अधिक अथवा आजीवन कारावास अथवा मृत्यु दंड से दंडनीय है) की न्यायिक हिरासत (Judicial Custody) में भी भेज सकता है।

जमानत के आधारों को जानने का अधिकार

CrPC की “धारा 50(2)” के तहत जहाँ एक पुलिस अधिकारी गैर-जमानती अपराध के आरोपी व्यक्ति के अलावा किसी अन्य व्यक्ति को वारंट के बिना गिरफ्तार करता है, वह गिरफ्तार व्यक्ति को सूचित करेगा कि, वह जमानत पर रिहा होने का हकदार है और वह अपनी ओर से जमानत राशि या Sureties की व्यवस्था करे। यदि व्यक्ति किसी जमानती अपराध का अभियुक्त है, तो जमानत प्राप्त करना उसका मूल अधिकार है।

पुलिस द्वारा बल का प्रयोग किये जाने के विरुद्ध संरक्षण

दंड प्रक्रिया संहिता की “धारा 46” में गिरफ़्तारी की प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है। इसके अनुसार पुलिस द्वारा किसी गिरफ़्तार किये जाने वाले व्यक्ति के विरुद्ध जब तक कि, आवश्यक न हो किसी प्रकार के बल का प्रयोग नहीं किया जाएगा। यदि गिरफ़्तार होने वाला व्यक्ति अपने वचन अथवा कर्म द्वारा खुद को अभिरक्षा में समर्पित न करे केवल उसी स्थिति में पुलिस को उस व्यक्ति को स्पर्श करने अथवा परिरुद्ध (Confine) करने का अधिकार है।

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इसके अतिरिक्त संहिता की “धारा 49” में भी प्रावधान किया गया है कि, पुलिस गिरफ़्तार किये गए व्यक्ति को अनावश्यक अवरुद्ध (Restraint) नहीं करेगी अथवा केवल उतना ही अवरुद्ध करेगी, जितना उसको निकल भागने से रोकने हेतु आवश्यक होगा।

हथकड़ी लगाने के विरुद्ध संरक्षण

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि, कोई भी व्यक्ति, जिसे गिरफ़्तार किया गया है उसे हथकड़ी नहीं लगाई जाएगी, जब तक कि, अभियुक्त पुलिस अभिरक्षा से भागने का प्रयास न करे। न्यायालय के अनुसार यह संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है तथा अमानवीय है। यदि अभियुक्त को हथकड़ी लगाई जाती है, तो पुलिस अधिकारी द्वारा इसका स्पष्ट कारण लिखना अनिवार्य होगा।

महिलाओं के संबंध में अधिकार

किसी महिला को गिरफ़्तार किये जाने की स्थिति में अभियुक्त को कुछ विशेष अधिकार दिए गए हैं। महिला अभियुक्त की गिरफ़्तारी केवल महिला पुलिस द्वारा ही की जाएगी तथा ऐसी गिरफ़्तारी सूर्यास्त के बाद तथा सूर्योदय से पहले नहीं की जा सकेगी। यदि मामला गंभीर हो तब केवल प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट के लिखित आदेश पर ही इस अवधि के दौरान किसी महिला की गिरफ़्तारी (केवल महिला पुलिस द्वारा) की जा सकती है।

निष्पक्ष एवं त्वरित सुनवाई का अधिकार

“सरकार” तथा “कानून के शासन” पर लोगों का विश्वास बना रहे इसके लिए किसी भी मामले की बिना किसी भेदभाव के सुनवाई होना बेहद अहम है। किसी भी अपराध के आरोपी व्यक्ति (Accused Person) का दोष या निर्दोषता निष्पक्ष और प्रभावी कानूनी प्रक्रिया के द्वारा ही निर्धारित होनी चाहिए। देश में इसके संबंध में संविधान तथा CrPC दोनों में ही प्रावधान हैं।

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हमारे संविधान का अनुच्छेद 14 देश के सभी नागरिकों को कानून का समान संरक्षण प्रदान करता है अर्थात कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है। दंड प्रक्रिया संहिता में भी व्यवस्था की गई है कि, कोई भी मुकदमा बिना किसी पूर्व धारणा के निष्पक्ष तरीके से खुली अदालत (Open Court) में चलाया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त हुसैनारा खातून के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने निष्पक्ष सुनवाई के साथ-साथ “त्वरित सुनवाई” की व्यवस्था पर भी ज़ोर दिया है।

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