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दल-बदल कानून (Anti-Defection law in Hindi)
दल-बदल कानून जैसा कि नाम से स्पष्ट है, निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के दल बदलने पर लागू होता है। इसका प्रावधान 52वें संविधान संशोधन 1985 द्वारा किया गया जिसमें किसी विधायक अथवा सांसद के दल परिवर्तन करने के आधार पर निरहर्ताओं के बारे में बताया गया है। इसके लिए संविधान में चार अनुच्छेदों में परिवर्तन किया गया तथा एक नई अनुसूचि (दसवीं अनुसूची) जोड़ी गयी।
कानून के प्रावधान
दसवीं अनुसूची में दल परिवर्तन के आधार पर जनप्रतिनिधियों की निरर्हताओं से संबंधित निम्नलिखित प्रावधान हैं।
- किसी सदन का सदस्य जो किसी राजनीतिक दल से संबंध रखता हो, उस सदन की सदस्यता के लिए अयोग्य माना जाएगा यदि वह अपनी इच्छा से उस राजनीतिक दल की सदस्यता त्याग देता है, सदन में अपने राजनीतिक दल के निर्देशों के ख़िलाफ़ मत देता है अथवा किसी मतदान में अनुपस्थित रहता है। गौरतलब है कि यदि सदस्य 15 दिनों के भीतर दल से क्षमादान प्रप्त कर लेता है तो उसे सदस्यता का त्याग नहीं करना पड़ता। यह प्रावधान किसी सदस्य को, जो किसी राजनीतिक दल के टिकट पर चुनाव जीता हो को अपने दल के निर्देशों का पालन करने हेतु बाध्य करता है।
- कोई निर्दलीय सदस्य किसी सदन की सदस्यता के लिए अमान्य घोषित किया जाएगा यदि वह चुनाव जीतने के बाद किसी राजनीतिक दल की सदस्यता धारण कर लेता है।
- इस कानून में मनोनीत सदस्यों के लिए भी प्रावधान किए गए हैं। यदि ऐसा कोई सदस्य सदन में अपना स्थान ग्रहण करने के 6 माह के बाद किसी राजनीतिक दल की सदस्यता धारण कर ले तो वह सदन की सदस्यता के लिए अयोग्य हो जाएगा।
2003 में हुए 91वें संविधान संशोधन में यह व्यवस्था की गई कि यदि किसी दल के एक तिहाई सदस्य विभाजन में शामिल होते हैं तो उन पर इस कानून के तहत कार्यवाही नहीं कि जाएगी दूसरे शब्दों में उन्हें सदन की सदस्यता के लिए अयोग्य नहीं ठहराया जाएगा।
कानून की आवश्यकता
इस कानून को लाने के पीछे मुख्य उद्देश्य पैसों अथवा पद के लालच में अपने मूल दल को त्याग कर किसी अन्य दल में जाने से रोकना था। 1960-70 के दौरान यह अत्यधिक प्रचालन में था जिससे राजनीतिक अस्थिरता का माहौल व्याप्त था। उदाहरण की बात करें तो अक्तूबर 1967 में हरियाणा के एक विधायक गया लाल ने 15 दिनों के भीतर 3 बार दल परिवर्तन किया।
दलों को मिले जनादेश का उल्लंघन करने वाले सदस्यों को अयोग्य घोषित करने की आवश्यकता महसूस होने लगी। परिणामस्वरूप इस कानून की व्यवस्था की गई। राजनीतिक अवसरवादिता के चलते संवैधानिक अस्थिरता स्थिति पैदा होती है जो किसी लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए उचित नहीं है। इस कानून के माध्यम से भारतीय संसदीय लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करने तथा अनैतिक दल परिवर्तन को रोकने की कोशिश की गई है।
“आया राम-गया राम”
साल 1967 में चुनाव नतीजे आने के बाद हरियाणा में तेजी से राजनीतिक घटनाक्रम बदले और हसनपुर सीट से चुनकर आए निर्दलीय विधायक गया लाल कांग्रेस में शामिल हो गए, हालाँकि गया लाल कॉंग्रेस के ही सदस्य थे जिन्होंने टिकट न मिलने के चलते निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीत गए। इसके बाद वे कांग्रेस से जनता पार्टी में गए, फिर वापस कांग्रेस में आए और इसके कुछ ही घंटे बाद फिर जनता पार्टी में चले गए और अंत में 15 दिनों के भीतर पुनः कॉंग्रेस में शामिल हो गए। जब वे वापस कांग्रेस में आए तो तो कांग्रेस नेता राव बीरेंद्र सिंह उन्हें चंडीगढ़ ले गए, जहाँ उन्होंने गया लाल का परिचय ‘गया राम-आया राम’ के तौर पर कराया। इसके बाद दल-बदल की घटनाओं के दौरान ‘आया राम-गया राम’ का यह मुहावरा आम हो गया।
निर्धारण प्राधिकारी एवं नियमन
दल परिवर्तन से संबंधित प्रश्नों का निर्णय संबंधित सदन का अध्यक्ष करता है। हालांकि 1993 से पूर्व ऐसे मामलों में अध्यक्ष का निर्णय अंतिम होता था किंतु 1993 में कीहोतो होलोहन मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह उपबंध असंवैधानिक करार दिया अतः अब इसकी न्यायिक समीक्षा की जा सकती है। न्यायालय ने इसे उच्चतम तथा उच्च न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र से बाहर जाने का प्रयत्न बताया।
नियमन की बात करें तो सदन के अध्यक्ष को दसवीं अनुसूचि के प्रावधानों को लागू करने के लिए आवश्यक नियम बनाने की शक्ति है। ऐसे नियम 30 दिनों की अवधि तक सदन के सम्मुख रखे जाते हैं सदन इन्हें स्वीकृत तथा इनमें सुधार कर सकता है अथवा इन्हें अस्वीकृत भी कर सकता है। ग़ौरतलब है कि दल परिवर्तन तत्काल रूप से प्रभावी नहीं होता इसमें निर्णय लेने से पूर्व सदस्य को अपना पक्ष रखने का अवसर दिया जाता है तथा मामले को जाँच के लिए विशेषाधिकार समिति के पास भेजा जा सकता है।
मौजूदा हालात
हालाँकि इस कानून के लागू होने से बहुत हद तक दल परिवर्तन तथा अवसरवादिता पर नियंत्रण किया गया है। कानून ने राजनीतिक दल के सदस्यों को दल बदलने से रोक कर सरकार को स्थिरता प्रदान करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। किन्तु इस कानून में कुछ खामियाँ भी हैं कानून के लागू होने के बावजूद राजनीतिक अस्थिरता पैदा करने, सरकारों को गिराने के प्रयत्न किए जाते रहे है, बीते सालों कर्नाटक, गोवा, मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में दल-बदल तथा सरकार गिरने से सभी अवगत हैं।
एक तिहाई सदस्यों का दल को परिवर्तन करना भी धीरे-धीरे आम होता जा रहा है। इसके अतिरिक्त यह कानून चुने हुए जनप्रतिनिधियों की स्वतंत्रता का भी हनन करता है। यह कानून जनप्रतिनिधियों के दलगत से ऊपर उठकर अपने स्वतंत्र विचार को रखने व कार्य करने से रोकता है।
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