अफगानिस्तान सरकार तथा तालिबान के मध्य बीते कई महिनों से चल रहे संघर्ष के बाद अफ़गान सरकार ने घुटने टेक दिए हैं। राष्ट्रपति अशरफ गनी देश छोड़कर जा चुके हैं, जबकि तालिबान ने राजधानी काबुल को अपने नियंत्रण में ले लिया है। नमस्कार दोस्तों स्वागत है आपका जानकारी ज़ोन में, आज इस लेख में हम चर्चा करेंगे अफगानिस्तान सरकार को घुटनों पर लाने वाला तालिबान कौन है? तथा अफगानिस्तान-तालिबान जंग (Afghanistan Taliban War in Hindi) के पीछे का इतिहास क्या है?
अफगानिस्तान
अफगानिस्तान दक्षिण एशिया में स्थित एक भू-आबद्ध देश है, जिसकी सीमाएं पूर्व में पाकिस्तान तथा भारत, उत्तर में ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान तथा उज्बेकिस्तान और पश्चिम में ईरान से मिलती हैं। देश का कुल क्षेत्रफल 652,864 वर्ग किलोमीटर है, जबकि आबादी तकरीबन 3.9 करोड़ है। अफगानिस्तान एक मुस्लिम बहुल देश है। यहाँ 99 फीसदी आबादी मुस्लिम है। अर्थव्यवस्था की बात करें तो यहाँ की जीडीपी लगभग 20 बिलियन डॉलर है। दशकों से चली आ रही राजनीतिक उठा पटक के चलते अफगानिस्तान कभी विकास के मार्ग पर नहीं बढ़ सका। देश की साक्षरता दर मात्र 43 फीसदी है।
अफगानिस्तान – तालिबान जंग
अफगानिस्तान तथा तालिबान के मध्य पिछले कुछ महिनों से चल रहे संघर्ष (Afghanistan Taliban War in Hindi) के चलते तालिबान ने राजधानी काबुल पर अपना कब्जा कर लिया है। हालाँकि तालिबान से ये जंग हालिया नहीं है, बल्कि 20 वर्षों से चली आ रही है। साल 2020 में चुन के आए नए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना को वापस बुलाने का आदेश जारी किया, जिसके बाद से तालिबान अफगानिस्तान पर पूर्ण रूप से नियंत्रण प्राप्त करने की कोशिश कर रहा था।
धीरे-धीरे तालिबान ने कई शहरों को अपने कब्जे में लिया और अंततः 15 अगस्त को राष्ट्रपति अशरफ गनी के देश छोड़कर भाग जाने की खबर से यह स्पष्ट हो चुका है कि तालिबान ने अफगानिस्तान को पूरी तरह से अपने नियंत्रण में कर लिया है। तालिबान द्वारा सत्ता पर कब्जा कर लेने से पूरे देश में आतंक का माहौल है, लोग देश से निकलने के लिए काबुल हवाई अड्डे का रुख कर रहे हैं, अफगानिस्तान की सड़कों पर जाम लगा हुआ है और एयरपोर्ट पर अफरा-तफरी का माहौल है। देश छोड़ने के बाद राष्ट्रपति गनी ने सोशल मीडिया पर लिखा-
आज मेरे सामने एक मुश्किल चुनाव था; मैं तालिबान का सामना करने के लिए खड़ा रहूँ, जो हथियारों से लैस हैं और राष्ट्रपति भवन में घुसना चाहते हैं या उस देश को छोड़कर चला जाऊं जिसकी रक्षा करने में मैंने अपने 20 साल दिए हैं। अगर मैं तालिबान से लड़ने का विकल्प चुनता तो, कई नागरिक शहीद होते और काबुल हमारी आँखों के सामने तबाह होता। इस 60 लाख की आबादी वाले शहर में बड़ी मानवीय त्रासदी देखनी पड़ती। तालिबान ने ठान लिया है कि मुझे रास्ते से हटाना है। वे यहाँ काबुल और काबुल के लोगों पर हमला करने आए हैं। इस खून-खराबे को रोकने के लिए यही बेहतर था कि मैं यहाँ से चला जाऊं। तालिबान तलवारों और बंदूकों के साथ यह युद्ध जीत गए हैं और अब लोगों की इज्जत, दौलत और खुद्दारी की रक्षा करने की जिम्मेदारी तालिबान की है।
हमनें अमेरिकी सेना के अफगानिस्तान से वापस चले जाने के कारण पैदा हुए इन हालातों की चर्चा की ऐसे में यह प्रश्न उठना लाज़मी है आखिर अमेरिकी सेना अफगानिस्तान में क्यों थी? अफगानिस्तान की राजनीतिक स्थिति को ठीक से समझने के लिए अफगानिस्तान के अतीत में झांकना आवश्यक हो जाता है।
अफगानिस्तान का इतिहास
अफगानिस्तान के इतिहास की बात करें तो यह प्राचीन काल से ही पश्चिम को पूर्व से जोड़ने वाले महत्वपूर्ण मार्ग सिल्क रोड का हिस्सा रहा है। सिल्क रोड पूर्व और पश्चिम को जोड़ने वाले व्यापारिक मार्गों का एक नेटवर्क था। चीन, भारत आदि देशों द्वारा पश्चिम से व्यापार करने के लिए इसी मार्ग का इस्तेमाल किया जाता रहा। दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से 18वीं शताब्दी तक अफगानिस्तान पूर्व एवं पश्चिम के बीच आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और धार्मिक संबंधों का केंद्र था। अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण यह भू-भाग हमेशा विविध संस्कृतियों के संपर्क में रहा।
प्राचीन एवं मध्यकालीन इतिहास
छठी शताब्दी ईसा पूर्व में हख़ामनी (आचमेनिड) शासक साइरस द्वितीय ने इस क्षेत्र पर अपना अधिकार स्थापित किया। 327 ईसा पूर्व सिकंदर ने भारत पर आक्रमण करने से पहले हख़ामनी शासन को उखाड़ फेंका और अधिकांश अफगान सरदारों पर विजय प्राप्त की। 304 ईसा पूर्व हिंदू कुश पर्वत के दक्षिण का क्षेत्र उत्तर-भारत के मौर्य वंश के शासन में आया। लगभग 135 ईसा पूर्व पाँच मध्य एशियाई खानाबदोश जनजातियों के एक संघ ने बैक्ट्रिया (हिन्दु कुश पर्वत श्रंखला और अमू दरिया के बीच का क्षेत्र) को बैक्ट्रियन यूनानियों से छीन लिया। इन पाँच जनजातियों ने इनमें से एक कुषाण के नेत्रत्व में एकजुट होकर अफगान क्षेत्र पर विजय प्राप्त की।
कुषाण शासन के पश्चात अनेक वंशों ने अफगानिस्तान पर शासन किया। 7वीं शताब्दी में इस क्षेत्र पर पहली बार अरबों के आक्रमण से इस्लाम का शासन स्थापित हुआ। 13वीं शताब्दी में मंगोल चंगेज खान ने अफगानिस्तान पर आक्रमण किया। अगले कुछ सौ वर्षों तक विभिन्न भारतीय और फारसी साम्राज्यों द्वारा अफगानिस्तान पर शासन के लिए लड़ाई लड़ी गई। अंत में, 18वीं शताब्दी में अहमद शाह अब्दाली ने दुर्रानी साम्राज्य की स्थापना की, यह पश्तून जनजातियों का एक समूह था, जिसने मुगलों और फारसियों को हराया और अपने साम्राज्य को मजबूत किया।
आधुनिक इतिहास
19वीं शताब्दी के दौरान पूर्व में रूस तथा ब्रिटिश भारत दो बड़े साम्राज्य थे। चूँकि ये सम्राज्यवाद का दौर था अतः दोनों के मन में एक दूसरे पर आक्रमण का भय बना रहा। अफगानिस्तान की सीमा पूर्व में ब्रिटिश-भारत से मिलती थी, वहीं अफगानिस्तान के उत्तर में विशाल रूसी साम्राज्य था। इन दोनों देशों ने मध्य में स्थित अफगानिस्तान पर अपना नियंत्रण स्थापित करने की पुरजोर कोशिश की। ब्रिटेन तथा रूस के मध्य अफगानिस्तान पर नियंत्रण के संघर्ष को ‘द ग्रेट गेम‘ के नाम से जाना जाता है।
आंग्ल-अफ़गान युद्ध
अफगानिस्तान पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के फलस्वरूप तीन आंग्ल-अफ़गान युद्ध (1839–42; 1878–80; 1919-1921) हुए। अंग्रेजों ने इस क्षेत्र में अपना नियंत्रण स्थापित करने के उद्देश्य से 1839 में अफगानिस्तान के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। ब्रिटेन ने यहाँ के शासक दोस्त मुहम्मद को सत्ता से बाहर निकालकर शाह सूजा को अफगानिस्तान का शासक बना दिया गया। हालाँकि इस युद्ध में अंततः अंग्रेजों को हार का सामना करना पड़ा और दोस्त मुहम्मद को पुनः शासक बना दिया गया।
1878 में लॉर्ड लिटन को भारत का वायसराय बनाया गया। अफगानिस्तान पर पड़ रहे रूसी प्रभाव को खत्म करने के उद्देश्य के चलते ब्रिटेन ने 1978 में पुनः अफगानिस्तान पर आक्रमण किया और इस बार ब्रिटेन कुछ हद तक सफल रहा, उसे अफ़ग़ानिस्तान के विदेशी मामलों पर नियंत्रण प्राप्त हो गया। अफगानिस्तान में रूस की स्थिति को कमजोर करने के लिए, ब्रिटेन ने अफगानिस्तान के शासकों को हथियार और आर्थिक सहायता प्रदान करना भी शुरू किया।
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान तत्कालीन अफ़गान शासक, हबीबुल्लाह खान ने युद्ध में गैर-भागीदारी की नीति बनाए रखी। जबकि अनेक नेताओं ने अंग्रेजों के खिलाफ तुर्की का व्यापक समर्थन किया। इनमें महमूद तारज़ी, अमीर का तीसरा बेटा अमानुल्लाह खान, अमीर का भाई नसरुल्लाह खान आदि के नेतृत्व वाले रूढ़िवादी गुट के सदस्य शामिल थे।
ब्रिटिश शासन के दबाव में तुर्की का साथ न देने के चलते 20 फरवरी, 1919 को हबीबुल्लाह की उसके बेटे अमानुल्लाह खान के कहने पर हत्या कर दी गई। इसके पश्चात उसके बेटे अमानुल्ला खान ने सिंहासन पर कब्जा किया और अपने राज्याभिषेक भाषण में ग्रेट ब्रिटेन से पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा कर दी।
इस घोषणा ने मई 1919 में तीसरे आंग्ल-अफगान युद्ध की शुरुआत की। 1919-21 के दौरान तीसरे आंग्ल -अफगान युद्ध में ब्रिटेन की हार हुई और अफगानिस्तान ने अपने विदेशी मामलों पर पुनः नियंत्रण हासिल कर लिया। अपने शासनकाल में अमानुल्लाह खान ने भूमि सुधार किए, करों को नियमित किया, शिक्षा का विस्तार किया, महिलाओं की शिक्षा तथा जीवन शैली में सुधार किए तथा देश को अपना पहला संविधान भी दिया।
स्वतंत्र अफगानिस्तान
अमानुल्लाह खान द्वारा किए गए परिवर्तन धार्मिक कट्टरपंथियों को रास नहीं आए। परिणामस्वरूप देश में विद्रोह (Afghanistan Taliban War in Hindi) हुआ और 1929 में उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया गया। अमानुल्लाह अपनी पत्नी के साथ ब्रिटिश भारत चले आए। इसके बाद 1933 में मोहम्मद ज़ाहिर शाह अफगानिस्तान का शासक बना। ज़ाहिर शाह लंबे समय (1933 से 1973) तक सत्ता में बने रहने वाला शासक था।
1973 में जब जहीर शाह इटली में छुट्टियां मना रहा था, उसके चचेरे भाई तथा पूर्व प्रधानमंत्री दाउद खान ने सेना की मदद से ज़ाहिर शाह सरकार का तख्तापलट कर दिया। उसने अफगानिस्तान को एक गणराज्य और खुद को राष्ट्रपति घोषित किया। दाउद ने अपने कार्यकाल में महिलाओं के अधिकारों को सुनिश्चित किया तथा शिक्षा पर ध्यान किया। इस दौरान काबुल शिक्षा तथा पर्यटन के केंद्र के रूप में उभरा। महिला और पुरुष एक साथ पढ़ते थे तथा विश्वविद्यालयों में विदेशी शिक्षकों की भागीदारी भी बढ़ने लगी। यद्यपि दाउद खान अपने शासनकाल के दौरान सोवियत संघ के करीब रहा, किन्तु खान ने शीत युद्ध की महाशक्तियों के साथ गुटनिरपेक्षता की नीति को बनाए रखा।
एक अफगान वामपंथी और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ अफगानिस्तान (पीडीपीए) के नेता मीर अकबर खैबर की हत्या नें कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर विद्रोह को जन्म दिया। इस हत्या के पीछे दाऊद खान सरकार का हाथ समझा गया फलस्वरूप 27 अप्रैल 1978 को अफगानिस्तान की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपीए) के नेतृत्व में हुए एक कम्युनिस्ट तख्तापलट में दाऊद खान की हत्या कर दी गई। आंतरिक संघर्ष के चलते पार्टी दो धड़ों “परचम” तथा “खाल्क” में विभाजित हो गई। तख्तापलट के बाद परचम के नेताओं को निष्कासित कर नूर मोहम्मद तारकी के नेतृत्व वाले दूसरे गुट खाल्क ने सत्ता संभाली।
तारकी ने इस्लामिक रूढ़िवादी विचारधारा पर हमला किया, महिलाओं की शिक्षा पर जोर दिया, धार्मिक कट्टरपंथियों तथा मौलवियों की राजनीतिक शक्तियों को कम किया। नतीजन एक बार फिर देश में कट्टरपंथियों तथा सरकार के मध्य संघर्ष की स्थिति पैदा हो गई। सोवियत संघ ने तारकी के शासन को बाहरी सहायता मुहैया करवाई। इस विद्रोह के बीच पार्टी के प्रतिद्वंद्वी हाफिजुल्ला अमीन द्वारा तारकी की हत्या कर दी गई।
अफगानिस्तान में सोवियत सेना
तारकी की हत्या के बाद रूस को अफगानिस्तान में कट्टरपंथियों के खिलाफ युद्ध करने का अवसर प्राप्त हो गया। इसके चलते 24 दिसंबर, 1979 को सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर आक्रमण किया। सोवियत सेना ने हाफिजुल्ला अमीन को मारकर मार्क्सवादी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ अफगानिस्तान (पीडीपीए) के परचम समूह के नेता करमाल को सत्ता सौंप दी। चूँकि ये शीत युद्ध का दौर था, जिसमें अधिकांश देश दो धड़ों यथा अमेरिका तथा सोवियत संघ में बँट गए थे।
अमेरिका तथा सोवियत संघ में अन्य देशों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने की होड़ लग गई। अफगानिस्तान पर बढ़ते रूसी प्रभाव को देखते हुए अमेरिका ने सक्रिय रूप से कट्टरपंथी विद्रोहियों, जिन्हें मुजाहिद्दीन कहा जाता था का समर्थन करना शुरू किया। अमेरिका ने इन्हें आर्थिक सहायता के साथ साथ आधुनिक उन्नत हथियार मुहैया करवाए ताकि ये मुजाहिद्दीन लड़ाके सोवियत सेना को देश से बाहर खदेड़ सकें। मुजाहिद्दीन लड़ाके अफगनिसतान की भौगोलिक स्थिति से अच्छे से वाकिफ़ थे अतः मुजाहिद्दीन ने सोवियत सेना के खिलाफ गुरिल्ला रणनीति अपनाई। वे अचानक हमला या छापा मारते थे तथा फिर पहाड़ों में गायब हो जाते थे।
अमेरिका द्वारा मुजाहिद्दीन लड़ाकों को दिए गए विमान-रोधी मिसाइलों के इस्तेमाल ने 1987 में युद्ध की स्थिति बदल दी। इन मिसाइलों के प्रयोग से मुजाहिद्दीन ने सोवियत विमानों और हेलीकॉप्टरों को मार गिराया। अपनी कमजोर स्थिति को देखते हुए नए सोवियत नेता मिखाइल गोर्बाचेव ने अफगानिस्तान से अपनी सेना को वापस बुलाने का निर्णय लिया। 1988 में निराश और बिना किसी जीत के सोवियत सेना ने पीछे हटना शुरू कर दिया और फरवरी, 1989 तक सभी सोवियत सैनिक अफगानिस्तान छोड़कर चले गए।
अफ़गान गृह युद्ध
सोवियत सेना को बाहर निकालने वाले मुजाहिद्दीन समूहों को मुख्य रूप से अमेरिका तथा सऊदी अरब द्वारा वित्त पोषित किया गया था। 1980 के दशक के अंत तक, अमेरिका और सऊदी अरब से इन लड़ाकों को दी जाने वाली आर्थिक सहायता 1 अरब डॉलर तक पहुँच गई, जबकि 1986 से 1990 के बीच करीब 5 अरब डॉलर के हथियार मुजाहिद्दीन के ‘जिहादियों’ को मुहैया कराए गए। अप्रैल 1992 में मुजाहिद्दीन ने काबुल पर कब्जा (Afghanistan Taliban War in Hindi) कर लिया और अफगानिस्तान को इस्लामिक राज्य घोषित कर दिया गया। बुरहानुद्दीन रब्बानी इस्लामिक राज्य अफगानिस्तान के नए राष्ट्रपति बनाए गए।
ये मुजाहिद्दीन समूह अलग अलग रीति-रिवाजों से संबंधित थे, जो सोवियत सेना के खिलाफ एकजुट होकर लड़ रहे थे, परंतु सोवियत सेना के वापस जाने के बाद इनमें सत्ता हासिल करने के लिए टकराव हुआ तथा देश में गृह युद्ध की शुरुआत हुई। प्रत्येक समूह सत्ता हासिल करना चाहता था। आने वाले वर्षों में कई बार इन उग्रवादी समूहों ने गठबंधन भी किए, किन्तु वे लंबे समय तक न चल सके और अफ़गान राजनीति में अस्थिरता बनी रही।
तालिबान का उदय
तालिबान पश्तो भाषा का एक शब्द है जिसका हिन्दी अर्थ “छात्र” होता है। गृह युद्ध के दौरान चल रही राजनीतिक अव्यवस्था के कारण कंधार के पास रहने वाले धार्मिक छात्रों के एक छोटे समूह ने मुल्ला मोहम्मद उमर के नेत्रत्व में एक संगठन “तालिबान” का गठन किया। गृह युद्ध में पाकिस्तान भागे शरणार्थी पाकिस्तान से प्रशिक्षण प्राप्त कर तालिबान का हिस्सा बने। इन्होंने सख्त शरिया कानून के आधार पर एक इस्लामी राज्य बनाने के उद्देश्य से देश में एक सैन्य अभियान (Afghanistan Taliban War in Hindi) शुरू किया। नवंबर 1994 में तालिबान ने कंधार को अपने नियंत्रण में ले लिया।
2000 तक तालिबान ने 90 प्रतिशत अफगान क्षेत्रों पर अपना नियंत्रण कायम कर लिया। पाकिस्तान तालिबानियों को प्रशिक्षण दे रहा था, जबकि अमेरिका तथा सऊदी जैसे देश इन्हें आधुनिक हथियार और आर्थिक मदद मुहैया करवा रहे थे। शुरुआत में तालिबान के आने से देश में कुछ हद तक राजनीतिक स्थिरता आई। किन्तु जैसे-जैसे समय गुजरा तालिबान ने कठोर शरिया कानून लोगों पर थोपने शुरू कर दिए।
सिनेमा, संगीत, खेल, चित्रकला, फोटोग्राफी, दाड़ी काटने तथा गैर-सरकारी संगठन समेत कई अन्य विषयों पर तालिबान द्वारा प्रतिबंध लगा दिया गया। तालिबान शासन से महिलाएं विशेष रूप से प्रभावित हुई, इन्होंने 10 वर्ष से अधिक उम्र की महिलाओं की शिक्षा को प्रतिबंधित कर दिया तथा महिलाओं के अकेले घरों से बाहर निकलने, बिना बुर्के के रहने आदि पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया। तालिबान द्वारा मानवाधिकारों का हनन (Afghanistan Taliban War in Hindi) करने के बाद भी सऊदी अरब, पाकिस्तान तथा UAE जैसे देशों ने तालिबान सरकार को मान्यता प्रदान की।
9/11 आतंकवादी हमला तथा अमेरिका का अफगानिस्तान में प्रवेश
11 सितंबर, 2001 को, इस्लामिक चरमपंथी समूह अल-कायदा, जिसका संस्थापक ओसामा बिन लादेन था से जुड़े 19 आतंकवादियों ने चार हवाई जहाजों को हाइजैक किया और संयुक्त राज्य में अलग अलग लक्ष्यों पर आत्मघाती हमले किए। दो विमानों को न्यूयॉर्क शहर में स्थित वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के जुड़वा टावरों में टकराया गया, एक तीसरा विमान वाशिंगटन डीसी के बाहर पेंटागन से टकराया और चौथा विमान पेंसिल्वेनिया के शैंक्सविले में एक मैदान में दुर्घटनाग्रस्त हो गया। इस हमले के दौरान लगभग 3,000 लोग मारे गए। हमले के बाद अल-कायदा ने इसकी जिम्मेदारी ली तथा इसका कारण अमेरिका की इस्लाम विरोधी नीतियों को बताया।
अमेरिका में हुए हमले के दौरान अल-कायदा के आतंकी न सिर्फ तालिबानी संरक्षण में अफगानिस्तान में मौजूद थे, बल्कि अपने आतंकवादी प्रशिक्षण तथा अन्य क्रियाकलापों के लिए अफगानिस्तान का इस्तेमाल भी कर रहे थे। अमेरिका ने जब तालिबान से आतंकवादियों को उसे सौंपने की बात कही तो तालिबान प्रमुख मुल्ला मोहम्मद उमर ने साफ इनकार कर दिया। तालिबान के उत्तर से रुष्ट अमेरिका ने अफगानिस्तान (Afghanistan Taliban War in Hindi) में सैन्य हस्तक्षेप किया लिहाजा तालिबान को सत्ता से उखाड़ दिया गया।
तालिबान के सत्ता से जाने के बाद नॉर्दन अलाइन्स के नेता हामिद करजई को अंतरिम राष्ट्रपति नियुक्त किया गया जो 2004 में हुए चुनावों द्वारा पुनः सत्ता हासिल करने में सफल रहे। 2001 से अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान में तालिबान के खिलाफ लड़ रहे हैं। करजई के शासनकाल में अफगानिस्तान ने विदेश-नीति पर काम किया तथा भारत समेत कई मुल्कों के साथ संबंध स्थापित किए।
नॉर्दर्न एलायंस, जिसे आधिकारिक तौर पर यूनाइटेड इस्लामिक फ्रंट के रूप में जाना जाता है एक संयुक्त सैन्य मोर्चा था। इसे 1996 के अंत में तालिबान के काबुल पर कब्जा करने के बाद गठित किया गया था। इसका उद्देश्य तालिबान तथा अल-कायदा से लड़ना है।
2011 में अमेरिका द्वारा एक गोपनीय मिशन के तहत ओसामा बिन लादेन की हत्या कर दी गई। 2003 में अफगानिस्तान में शांति बहाल करने और अफगान सुरक्षा बलों को मजबूत करने के उद्देश्य से आई NATO सेनाएं 2014 में अफगानिस्तान से चली गई, जबकि अमेरिकी सेना अफगानिस्तान में ही मौजूद रही। इस दौरान तालिबान अपनी स्थिति मजबूत करने में लगा रहा। जैसे ही अमेरिका ने 11 सितंबर 2021 तक, दो दशकों के युद्ध के बाद अपनी सेना की वापसी की तैयारी करी तालिबानियों ने बड़े शहरों पर कब्जा करना शुरू कर दिया और अंततः देश की राजधानी पर नियंत्रण स्थापित कर लिया।
अन्य देशों का रुख
तालिबान द्वारा अफगानिस्तान पर कब्जा करने के पश्चात विश्व के अनेक देशों जिनमें ऑस्ट्रेलिया, भारत, अमेरिका, डेनमार्क तथा नॉर्वे जैसे देश शामिल हैं, ने अफगानिस्तान में स्थित अपने दूतावास बंद कर दिए हैं। वहीं कुछ अन्य देश जैसे पाकिस्तान, चीन, ईरान तथा रूस तालिबान का समर्थन करते नजर आ रहे हैं।
सर्वप्रथम चीन के विदेश मंत्रालय के एक प्रवक्ता ने प्रेस वार्ता के माध्यम से बयान में कहा कि वे तालिबान से शांतिपूर्ण ढंग से सत्ता हस्तांतरण तथा विदेशी राजनयिक मिशनों के सम्मान करने की उम्मीद करते हैं। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने तालिबान का समर्थन करते हुए कहा कि अफगानिस्तान ने गुलामी की बेड़ियों को तोड़ दिया है। रूस ने तालिबान का समर्थन करते हुए वर्तमान स्थिति को पूर्व की गनी सरकार से बेहतर तथा अधिक शांतिपूर्ण बताया।
भारत की स्थिति
अफगानिस्तान में लोकतान्त्रिक सरकार की स्थापना के बाद से ही भारत तथा अफगानिस्तान के संबंधों में नजदीकियाँ आई हैं। भारत ने पिछले दो दशकों में अफगानिस्तान के पुनःर्निर्माण की प्रक्रिया में सक्रिय भूमिका निभाई है। भारत ने अफगानिस्तान में संसद भवन, सड़कें, स्कूल, अस्पताल, बाँध समेत कई अन्य महत्वपूर्ण परियोजनाओं के निर्माण में देश की मदद की है। दोनों के मध्य व्यापार को देखें तो 2020-21 में भारत और अफगानिस्तान के बीच द्विपक्षीय व्यापार लगभग $1.4 बिलियन रहा।
भारत ने अफगानिस्तान में 400 से अधिक परियजनाओं में तकरीबन 3 बिलियन डॉलर से अधिक का निवेश किया है। तालिबान के नियंत्रण के बाद दोनों देशों के मध्य व्यापार तथा भारत द्वारा अफगानिस्तान में किया गया निवेश दोनों अधर में हैं। हालाँकि भारत ने तालिबान सरकार को मान्यता देने या न देने के संबंध में अपनी स्थिति साफ नहीं की है, किन्तु सरकार की ओर से काबुल स्थित भारतीय दूतावास को बंद कर दिया गया है।
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