पिछले एक साल से भी अधिक समय से चल रहा किसान आंदोलन हाल ही में समाप्त हो गया। 19 नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक भाषण के दौरान तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की बात कही तथा संसद के शीतकालीन सत्र की शुरुआत में 29 नवंबर को कानूनी प्रक्रिया के तहत तीनों कानूनों को निरस्त कर दिया गया। हालाँकि किसानों की माँग में शुरुआत से ही तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने के अतिरिक्त न्यूनतम समर्थन मूल्य अथवा MSP की कानूनी गारंटी भी शामिल थी।
9 दिसंबर को केंद्र सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य सुनिश्चित करने हेतु एक कमेटी के गठन समेत किसानों की कुछ अन्य बातें भी मान ली। केंद्र सरकार से प्राप्त एक लिखित मसौदा प्रस्ताव के बाद किसानों ने आंदोलन को समाप्त करने की घोषणा की है।
हमनें तीनों कृषि कानूनों तथा APMC अथवा मंडी व्यवस्था को एक अन्य लेख में विस्तार से समझाया है, जिसे आप नीचे दी गई लिंक के माध्यम से पढ़ सकते हैं। आज इस लेख में हम समझने की कोशिश करेंगे किसान आंदोलन की मुख्य मांग बना न्यूनतम समर्थन मूल्य क्या है, इसकी शुरुआत क्यों की गई तथा किसान इसकी मांग को लेकर पिछले पंद्रह महीनों से अधिक समय से धरनें पर क्यों बैठे थे।
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न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) क्या है?
न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित वह न्यूनतम कीमत है, जो किसानों को उनके द्वारा उत्पादित कुछ चुनिंदा फसलों की बिक्री पर प्राप्त होती है। न्यूनतम समर्थन मूल्य (Minimum Support price) को एक गारंटी मूल्य के तौर पर समझा जा सकता है, यह किसानों के लिए उनकी उपज का एक न्यूनतम मूल्य सुनिश्चित करता है, ताकि खुले बाज़ार के उतार-चढ़ाव से किसान बहुत हद तक प्रभावित न हों। शुरुआत में न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था केवल गेहूँ की फसल पर की गई, जबकि समय के साथ इसमें अन्य कई फसलों (तिलहन, दालें एवं अन्य अनाज) को भी शामिल किया जाता रहा है।
हालाँकि MSP की व्यवस्था किसानों को अनाज उत्पादन के लिए प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से लाई गई किन्तु, खाद्यान्न में आत्मनिर्भर होने के बावजूद किसानों के हितों को ध्यान में रखते हुए यह व्यवस्था वर्तमान समय में भी जारी है। न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP in Hindi) की आवश्यकता एवं इसकी शुरुआत को ठीक से समझने के लिए भारत में खाद्यान्न उत्पादन की एतिहासिक पृष्ठभूमि को जान लेना आवश्यक है।
भारत में खाद्यान्न उत्पादन एवं अमेरिका पर निर्भरता
देश की आजादी के बाद से लगभग दो दशकों तक भारत खाद्यान्न में आत्मनिर्भर नहीं था हालाँकि इसका एक बहुत बड़ा कारण खाद्यान्न का देश भर में सही तरीके से वितरण (आधिक्य वाले राज्यों से अनाज की कमी वाले राज्यों में) न होना भी रहा। 1950 के दशक में अमेरिका का गेहूँ उत्पादन आवश्यकता से कहीं अधिक था अतः अमेरिका ने अफ्रीकी तथा एशियाई देशों, जो खाद्यान्न में आत्मनिर्भर नहीं थे, में इसका निर्यात करने की सोची और साल 1954 में एक कार्यक्रम Public Law- 480 की शुरुआत करी।
इस कार्यक्रम की खास बात यह थी कि, इसके तहत विभिन्न देश अपनी घरेलू मुद्रा में अमेरिकी खाद्यान्न खरीद सकते थे। अनाज की कमी से जूझ रहे भारत के लिए यह खाद्य आपूर्ति का एक अच्छा विकल्प था।
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चूँकि भारत अब अमेरिका से गेहूँ का आयात कर रहा था अतः इसका सीधा असर घरेलू उत्पादन पर भी पड़ा। साल 1956 से 1964 के मध्य भारत में गेहूँ की पैदावार दर लगभग स्थिर रही। 1964-65 के अच्छे मानसून वर्ष में भी, अमेरिकी खाद्य सहायता कुल 7 मिलियन टन थी, जो घरेलू उत्पादन के दसवें हिस्से से भी अधिक थी। इसके अतिरिक्त इस दौर में चीन तथा पाकिस्तान से हुए युद्धों एवं 1965 और 1966 में लगातार दोहरे सूखे की मार ने देश के खाद्यान्न उत्पादन को बुरी तरह प्रभावित किया, लिहाज़ा भारत खाद्यान्न के लिए बहुत हद तक अमेरिका पर निर्भर हो गया।
हालाँकि अमेरिका भारत को खाद्यान्न मुहैया करवा रहा था, किन्तु भारत की गुटनिरपेक्ष नीति से अमेरिका कभी खुश नहीं था। इसके अलावा वियतनाम युद्ध में भारत की अमेरिका विरोधी स्थिति तथा अमेरिका में खाद्यान्न के गिरते उत्पादन के चलते अमेरिकी राष्ट्रपति जॉनसन ने साल 1966 में खाद्यान्न निर्यात प्रतिबंधित करने की चेतावनी दे डाली।
चूँकि इस समय भारत के लिए अमेरिकी मदद बेहद जरूरी थी अतः भारत के अनुरोध करने पर अमेरिका ने खाद्य आपूर्ति के लिए भारत के सामने कृषि उत्पादन में आत्मनिर्भर होने की दिशा में कार्य करने तथा वैज्ञानिक तरीके से कृषि करने, जिनमें अमेरिकी उत्पादों (उर्वरकों एवं कीटनाशक) को खरीदना शामिल था की शर्तें रखी।
हरित क्रांति एवं न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की शुरुआत
हरित क्रांति की शुरुआत 1960 के दशक में कृषि वैज्ञानिक नॉर्मन बोरलॉग के नेतृत्व में हुई। उन्होनें इस दशक में मेक्सिको में गेहूँ की उच्च उपज देने वाली किस्मों (High Yielding Variety) की शुरुआत करी, चूँकि भारत को कृषि उपज में आत्मनिर्भर बनने की दिशा में कार्य करना था अतः भारत ने मेक्सिको से लगभग 18 हजार टन गेहूँ की उन्नत किस्म का आयात किया। इसके अलावा इसी दौर में गेहूँ के अतिरिक्त फिलीपींस में चावल की भी अधिक उपज देने वाली किस्म IR8 की शुरुआत की गई।
भारत में कृषि वैज्ञानिक एम. एस. स्वामीनाथन के नेतृत्व हरित क्रांति की शुरुआत हुई। सिंचाई की व्यवस्था को देखते हुई इन उन्नत बीजों का अधिकांश हिस्सा पंजाब एवं हरियाणा के किसानों को वितरित किया गया। हालाँकि अब भी सरकार के लिए किसानों को इन बीजों का इस्तेमाल कर कृषि उत्पादन के लिए प्रोत्साहित करना एक मुख्य चुनौती थी।
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किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार ने Input Subsidy तथा Output Guarantee की नीति अपनाई। इसके तहत सरकार ने पहले किसानों को उन्नत बीज, उर्वरक, कीटनाशक आदि सस्ती दरों में उपलब्ध करवाए तथा उत्पादन होने के पश्चात किसानों को उनकी उपज के लिए एक न्यूनतम मूल्य की गारंटी भी प्रदान करी और यहीं से शुरुआत हुई न्यूनतम समर्थन मूल्य अथवा MSP की। वर्ष 1966-67 में पहली बार केंद्र सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य (Minimum Support Price) पेश किया गया।
उन्नत बीजों के इस्तेमाल तथा वैज्ञानिक तरीके से कृषि करने के चलते भारत में खाद्यान्न उत्पादन साल दर साल बढ़ने लगा तथा 29 दिसंबर, 1971 को भारत सरकार ने अमेरिका से सभी अनाज आयात को रद्द करने का फैसला लिया। हरित क्रांति के चलते भारत का खाद्यान्न उत्पादन 1980 आते-आते लगभग 130 मिलियन टन तक पहुँच गया, जो 1960 में कुल 82 मिलियन टन था और इस प्रकार भारत खाद्यान्न में पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर बन सका।
कैसे कार्य करती है MSP व्यवस्था
न्यूनतम समर्थन मूल्य के इतिहास को समझने के पश्चात आइए जानते हैं यह व्यवस्था किस प्रकार कार्य करती है। Minimum Support Price (MSP) वर्तमान में विभिन्न श्रेणियों की कुल 23 फसलों पर लागू होता है, जो निम्नलिखित हैं।
- अनाज (7): धान, गेहूँ, जौ, ज्वार, बाजरा, मक्का और रागी
- दाल (5): चना, अरहर, मूँग, उड़द और मसूर की दाल
- तिलहन (8): मूँगफली, सरसों, तोरिया (लाही), सोयाबीन, सूरजमुखी के बीज, तिल, कुसुम का बीज, रामतिल का बीज
- कच्ची कपास, कच्चा जूट, नारियल, सूखा नारियल
- गन्ना (MSP के समान उचित एवं लाभकारी मूल्य)
गौरतलब है की फल, फूल, सब्जियाँ इत्यादि इसके अंतर्गत शामिल नहीं हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रतिवर्ष फसल की बुवाई से पहले तय किए जाते हैं। केंद्र सरकार की एक समिति Commission for Agricultural Costs & Prices (CACP) न्यूनतम समर्थन मूल्य के संबंध में अपनी सिफारिशें Cabinet Committee on Economic Affairs (CCEA) को भेजती है और उसके बाद MSP का निर्धारण होता है।
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MSP के तहत आने वाली फसलों की स्थिति में APMC मंडी (Agricultural Produce Market Committee) में बोली तय MSP से नीचे नहीं लगाई जा सकती। इसके अतिरिक्त किसानों की दो फसलों यथा गेहूँ एवं चावल की खरीद का आश्वासन सरकार द्वारा भी दिया जाता है अतः किसानों के पास गेहूँ तथा चावल को APMC मंडी में या सीधे सरकार को बेचने का विकल्प होता है। सरकार Food Corporation of India (FCI) के माध्यम से गेहूँ तथा चावल की खरीद तय न्यूनतम समर्थन मूल्य पर करती है।
किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP in Hindi) की तुलना में बेहतर मूल्य मिलने पर वे अपनी उपज को खुले बाजार में अर्थात निजी व्यापारियों को बेचने के लिए भी स्वतंत्र होते हैं। सरकार द्वारा खाद्यान्न की खरीद का लक्ष्य राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम तथा अन्य कल्याणकारी योजनाओं के अंतर्गत जरूरतमंद लोगों को सब्सिडाइज्ड दर पर अनाज की आपूर्ति सुनिश्चित करना तथा खाद्यान सुरक्षा हेतु अनाज का बफर स्टॉक तैयार करना है।
कैसे की जाती है MSP कि गणना?
वर्ष 2004 में कृषि वैज्ञानिक एम. एस. स्वामीनाथन की अध्यक्षता में राष्ट्रीय किसान आयोग का गठन किया गया, जिसनें न्यूनतम समर्थन मूल्य की गणना करने के संबंध में सरकार को फार्मूला सुझाया। इसके तहत CACP द्वारा राज्य और अखिल भारतीय दोनों स्तरों पर प्रत्येक फसल के लिये तीन प्रकार की उत्पादन लागतों का अनुमान लगाया जाता है।
A2 : इसके तहत किसान द्वारा प्रत्यक्ष तौर पर कुल निवेश की गई राशि जैसे बीज, उर्वरक, कीटनाशक, श्रम, पट्टे पर ली गई भूमि, ईंधन, सिंचाई आदि पर किये गए व्यय को शामिल किया जाता है।
A2 + FL : इसमें ‘A2’ के साथ-साथ किसान द्वारा स्वयं अथवा उसके पारिवारिक सदस्यों द्वारा किये गए अवैतनिक श्रम का एक अधिरोपित मूल्य शामिल किया जाता है।
C2 : इसमें A2+FL के अतिरिक्त किसान द्वारा लगाई गई पूँजी के एवज में मिलने वाले ब्याज अथवा किसानों के स्वामित्व वाली जमीन एवं मशीनरी से प्राप्त होने वाले किराए को भी जोड़ा जाता है।
स्वामीनाथन समिति नें न्यूनतम समर्थन मूल्य के संबंध में सिफारिश की थी कि, सरकार द्वारा 1.5xC2 को MSP के रूप में दिया जाना चाहिए।
पंजाब एवं हरियाणा के लिए MSP की प्रासंगिकता
न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP in Hindi) की माँग को लेकर आंदोलन कर रहे किसानों में बहुत बड़ा हिस्सा पंजाब एवं हरियाणा के किसानों का था। यदि इन राज्यों की कृषि पैदावार के आंकड़ों पर नजर डालें तो आंदोलन में इन राज्यों के किसानों के होने का कारण स्पष्ट दिखाई देता है।
हरित क्रांति के दौर में चूँकि इन राज्यों के पास सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था थी, अतः हरित क्रांति का इन राज्यों में अधिक प्रभाव पड़ा। देश में गेहूँ एवं धान की पैदावार को देखें तो यह 2020-21 में तकरीबन क्रमशः 109 मिलियन टन एवं 122 मिलियन टन है, जिसमें गेहूँ का 26 फीसदी तथा धान का 16 फीसदी केवल इन दो राज्यों में पैदा होता है। इसके अलावा इन राज्यों में पैदा होने वाले गेहूँ एवं चावल का लगभग 80 से 90 फीसदी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकार द्वारा खरीदा जाता है।
इन आंकड़ों से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि, इन राज्यों के किसान एवं कृषि अर्थव्यवस्था बहुत हद तक न्यूनतम समर्थन मूल्य (Minimum Support Price) पर निर्भर करती है। नए कृषि कानूनों, के आ जाने से इन राज्यों के किसानों को भय था कि, निजी क्षेत्र के बाजार में आ जाने से आने वाले समय में APMC अथवा मंडी जैसी व्यवस्था समाप्त हो जाएगी तथा निजी क्षेत्र मनमाने दामों में किसानों की फसलें खरीदेगा।

Minimum Support Price (MSP) की वर्तमान गणना
BJP ने 2014 के अपने चुनावी घोषणापत्र में किसानों की आय को किसान आयोग की रिपोर्ट के अनुसार डेढ़ गुना करने का वादा किया था, जिसके परिणामस्वरूप साल 2018 में तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली नें बजट भाषण के दौरान किसानों को उनकी उपज का डेढ़ गुना दाम सुनिश्चित करने की बात कही हालाँकि बजट भाषण में सरकार ने उस उत्पादन लागत को निर्दिष्ट नहीं किया था, जिस पर डेढ़ गुना की गणना की जानी थी।
बाद में CACP की रिपोर्ट में कहा गया कि, उसकी सिफारिशें A2+FL लागत पर आधारित हैं। विरोध प्रदर्शन कर रहे किसानों की एक मांग यह भी है कि, एम.एस. स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय किसान आयोग द्वारा अनुशंसित डेढ़ गुना MSP A2+FL के बजाए C2 लागतों पर लागू किया जाना चाहिये।
न्यूनतम समर्थन मूल्य (Minimum Support Price) के फायदे
वर्तमान परिस्थिति के आधार पर देखें तो न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की व्यवस्था बहुत हद तक तर्कसंगत है। हमनें इसके पक्ष में कुछ तर्कों को रखा है, जिनसे न्यूनतम समर्थन मूल्य की प्रासंगिकता का अंदाजा लगाया जा सकता है।
✅ भारत एक कृषि प्रधान देश है अतः किसानों की उपज के लिए एक न्यूनतम मूल्य की गारंटी सुनिश्चित करना सामाजिक न्याय की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण कदम है।
✅ चूँकि कृषि क्षेत्र में मांग एवं आपूर्ति का नियम अन्य उद्योगों के समान लागू नहीं होता, क्योंकि अन्य उत्पादों के विपरीत कृषि उपज में एक न्यूनतम समय लगता है अतः किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य मिले इसके लिए सरकारों को एक न्यूनतम मूल्य प्रणाली को प्रोत्साहित करना चाहिए।
✅ खाद्य तेलों में पिछले एक साल में हुई वृद्धि को देखा जाए तो किसानों की इस संभावना से, कि न्यूनतम समर्थन मूल्य जैसी व्यवस्था के न रहने पर निजी क्षेत्र मनमाने दामों में किसानों की फसलें खरीदेगा इनकार नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के तौर पर सब्जियों को लें तो समय-समय पर किसानों द्वारा फसल का उचित मूल्य न मिलने के कारण अपनी फसल को सड़कों में फेंकने की खबरें भी आती हैं, जबकि एक आम उपभोक्ता उसी उत्पाद के लिए अच्छी-खासी कीमत चुकाता है।
✅ न्यूनतम समर्थन मूल्य जैसी व्यवस्था सरकार के लिए भी फायदेमंद है। चूँकि केंद्र सरकार को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम (NFSA) के तहत जरूरतमन्द लोगों तक सस्ती दरों में खाद्यान्न की आपूर्ति करनी होती है अतः सरकार के लिए बाजार से खाद्यान्न खरीदने के बजाए यह अधिक सुविधाजनक है कि, किसान स्वयं अपना अनाज सरकार को बेच दें।
सरकारों के समक्ष चुनौतियाँ
न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था किसानों को भले ही उनकी फसल का एक न्यूनतम मूल्य सुनिश्चित करती हो, किन्तु इस व्यवस्था की कुछ चुनौतियाँ भी हैं, जिनको हम यहाँ समझेंगे।
☑️ न्यूनतम समर्थन मूल्य की गणना पूरे देश के लिए समान आधार पर की जाती है किन्तु, सिंचाई और मजदूरी में भिन्नता के कारण, एक ही फसल की लागत अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग हो सकती है।
☑️ न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) हमेशा फसल की एक ‘फेयर एवरेज क्वॉलिटी‘ के लिए होता है किन्तु, कोई फसल गुणवत्ता के मानकों पर ठीक बैठती है या नहीं इसे तय करना एक चुनौती है।
☑️ FCI अधिकारियों के भ्रष्टाचार तथा मंडी में कमीशन एजेंटों और AMPC अधिकारियों की मिलीभगत के चलते किसान MSP जैसी व्यवस्था होने के बावज़ूद अपनी फसलें बिचौलियों को सस्ते दामों में बेचते हैं।
☑️ इन सब के अतिरिक्त न्यूनतम समर्थन मूल्य जैसी व्यवस्था होने से किसान उन फसलों के उत्पादन पर अधिक बल देते हैं, जिनमें न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था है, लिहाज़ा कृषि क्षेत्र में नए प्रयोग हतोत्साहित होते हैं।
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