जानें कैसे अमेरिकी डॉलर बना एक वैश्विक मुद्रा? (How U.S. Dollar Became Global Currency)

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नमस्कार दोस्तो! स्वागत है आपका जानकारी ज़ोन में जहाँ हम विज्ञान, प्रौद्योगिकी, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, अर्थव्यवस्था, ऑनलाइन कमाई तथा यात्रा एवं पर्यटन जैसे क्षेत्रों से महत्वपूर्ण एवं रोचक जानकारी आप तक लेकर आते हैं। आज इस लेख में चर्चा करेंगे आखिर कैसे अमेरिकी डॉलर दुनियाँ की सबसे मजबूत एवं एक वैश्विक मुद्रा बनी (How US Dollar became Global Currency) तथा पहली बार डॉलर तथा भारतीय रुपये की विनिमय दर (Exchange Rate) किस प्रकार तय की गई।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद का विश्व

साल 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध आरंभ हुआ तथा 1944 आते-आते जर्मनी तथा ध्रुवी शक्तियों के हारने के साथ समाप्त हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध में हार जर्मनी की अवश्य हुई थी, किन्तु आर्थिक रूप से लगभग सभी यूरोपीय देश बर्बाद हो चुके थे। केवल संयुक्त राज्य अमेरिका एक अकेला देश था, जो आर्थिक रूप से अन्य की तुलना में कम प्रभावित हुआ था, हाँलाकि अमेरिका मित्र राष्ट्रों को सहायता अवश्य दे रहा था परंतु विश्व युद्ध में अमेरिका सक्रिय रूप से भागीदार नहीं रहा।

ब्रिटेनवुड समझौता

द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद, जबकि लगभग सभी देश आर्थिक रूप से तबाह हो चुके थे दुनियाँ को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक मौद्रिक नीति की आवश्यकता थी। परिणामस्वरूप 1944 में अमेरिका के ब्रिटेनवुड में 44 देशों के लगभग 730 प्रतिनिधियों ने एक सम्मेलन में हिस्सा लिया, जिसे ब्रिटेनवुड सम्मेलन का नाम दिया गया। इस सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संवर्द्धि दर को बढ़ाना तथा युद्ध के पश्चात हुए आर्थिक नुकसान से उभरना था।

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समझौते में लिए गए मुख्य निर्णय

विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका की आर्थिक स्थिति अन्य की तुलना में बेहतर थी अतः केवल अमेरिकी डॉलर ही विश्व में एक विश्वसनीय तथा स्थिर मुद्रा के रूप में सामनें थी। इसी को देखते हुए सोने को अमेरिकी डॉलर से सम्बद्ध कर दिया गया। यह निर्णय लिया गया कि, अमेरिकी फेडरल रिजर्व केवल तभी 1 डॉलर छाप सकेगा जब उसके पास 0.88 ग्राम सोना हो तथा यह भी तय हुआ कि, कोई भी देश 1 डॉलर देकर अमेरिकी फेडरल रिजर्व से 0.88 ग्राम सोना ले सकते हैं।

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इस व्यवस्था को गोल्ड स्टेंडर्ड करेंसी एक्सचेंज सिस्टम कहा गया। इस प्रकार अमेरिकी डॉलर के वैश्विक मुद्रा अथवा वैश्विक रिजर्व मुद्रा बनने की शुरुआत हुई। इसके अतिरिक्त अन्य सभी देशों की मुद्राओं को भी अमेरिकी डॉलर से जोड़ दिया गया तथा उनके लिए भी मुद्रा छापने के लिए निर्धारित मात्रा में सोना या अमेरिकी डॉलर रिजर्व में होना अनिवार्य किया गया। उदाहरणार्थ भारत को 1 रुपया जारी करने के लिए अपने विदेशी मुद्रा भंडार में 0.30 डॉलर या 0.26 ग्राम सोना रखना अनिवार्य किया गया। अब कोई भी देश मनमाने ढंग से मुद्रा नहीं छाप सकता था।

How US Dollar became Global Currency

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस व्यवस्था का क्रियान्वयन करनें के लिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) की स्थापना की गई। सभी सदस्य देशों के लिए उनकी अर्थव्यवस्था के अनुसार मुद्रा कोष में मुद्रा जमा करनें का प्रावधान किया गया और इस संस्था ने अपनी एक नई मुद्रा स्पेशल ड्रॉइंग राइट (SDR) की शुरुआत की, जिसकी उस समय कीमत एक अमेरिकी डॉलर के समान थी।

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गोल्ड स्टेंडर्ड करेंसी एक्सचेंज सिस्टम की विफलता

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विश्व में दो बड़ी शक्तियाँ अमेरिका तथा सोवियत संघ के रूप में समनें आई, दोनों देशों के मध्य युद्ध जैसे हालत बनने लगे, जिस कारण दोनों में हथियारों के उत्पादन को लेकर होड़ मच गई। इसके अतिरिक्त वियतनाम युद्ध के चलते भी अमेरिका को अधिक हथियारों एवं रक्षा उपकरणों की आवश्यकता थी।

हथियारों के अधिक उत्पादन के लिए अमेरिका नें रक्षा क्षेत्र में सब्सिडी देना शुरू कर दिया तथा मनमाने ढंग से डॉलर छापने लगा लिहाज़ा महँगाई बढ़ने लगी और सोने के मुकाबले डॉलर अधिक हो जाने के कारण सोना महँगा हो गया। चूँकि ब्रिटेनवुड समझौते के तहत अमेरिका एक डॉलर के बदले 0.88 ग्राम सोना देने के लिए बाध्य था, जबकि बाज़ार में 0.88 ग्राम सोने की कीमत 1 डॉलर से अधिक थी अतः अन्य देशों ने अपने विदेशी मुद्रा भंडार से डॉलर निकालकर उसके बदले अमेरिका से सोना देने की माँग की परिणामस्वरूप अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने ब्रिटेनवुड समझौते को समाप्त कर दिया।

अमेरिका-अरब समझौता

निक्सन के इस फैसले से विश्वभर में डॉलर के प्रति जो विश्वसनीयता थी वो खत्म होने की कगार पर आ गयी। किन्तु अभी भी अधिकांश देशों के पास विदेशी मुद्रा के रूप में डॉलर अधिक मात्रा में रखा था। डॉलर की खत्म हो चुकी विश्वसनीयता को पुनः ठीक करनें के उद्देश्य से रिचर्ड निक्सन ने सऊदी अरब के साथ एक समझौता किया कि, वो अपने कच्चे तेल का व्यापार अमेरीकी डॉलर में करे बदले में अमेरिका उसके तेल क्षेत्रों को संरक्षण देगा।

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इसके अतिरिक्त सऊदी अरब में अमेरिकी कंपनियों द्वारा इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण का कार्य किया जाएगा, जिसका भुगतान साउदी अरब तेल व्यापार से आए डॉलर से कर सकेगा। चूँकि इसी दौरान अरब-इजराइल यद्ध में अरब देश बुरी तरह हार चुके थे अतः उन्होंने अमेरिका का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। यहाँ से अमेरिकी डॉलर पुनः शक्तिशाली होने लगा चूँकि सभी देशों को अरब देशों से तेल खरीदनें के लिए अमेरिकी डॉलर की आवश्यकता थी अतः सभी देशों ने पुनः अमेरिकी डॉलर को जमा करना शुरू कर दिया तथा डॉलर धीरे-धीरे मजबूत होना शुरू हुआ और इसकी वर्तमान स्थिति हमारे सामनें है।

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