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बैंकिंग व्यवस्था
बैंकिंग व्यवस्था एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें मुख्य रूप से जनता से धन जमा करने तथा जनता को कर्ज देने की व्यवस्था की जाती है। बैंकिंग व्यवस्था ही अर्थव्यवस्था में धन का प्रवाह करती है। सामान्यतः लोग अपनी बचत को सुरक्षित रखने तथा उस बचत पर ब्याज कमाने के दृष्टिकोण से बैंकों में अपना धन जमा करते हैं एवं बैंक उस पैसे को जरूरतमंद लोगों को तय ब्याज दर पर कर्ज देता हैं। जनता को उनकी बचत पर दिया जाने वाला ब्याज, जनता को कर्ज़ देकर लिए गए ब्याज से कम होता है और ब्याज के इस अंतर से बैंक अपना संचालन एवं अपने कर्मचारियों को वेतन देते हैं।
भारत में बैंकिंग क्षेत्र की शुरुआत (History of Banking in India)
भारत में बैंकिंग व्यवस्था की बात करें तो इसकी शुरुआत 18वीं सदी से हो गयी थी। भारत का पहला बैंक साल 1770 में बैंक ऑफ हिंदुस्तान के नाम से खोला गया, जिसने 1832 में अपने सभी ऑपरेशन बंद कर दिए। इसके पश्चात समय समय पर कई बैंकों की शुरुआत हुई किन्तु कुछ भविष्य में कई कारणों के चलते बंद कर दिए गए एवं कुछ का अन्य बैंकों में विलय कर दिया गया।
ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा साल 1806 में बैंक ऑफ कलकत्ता के नाम से एक बैंक की शुरुआत की गई, जिसे 1809 में बैंक ऑफ बंगाल का नाम दिया गया, ततपश्चात अन्य दो प्रेसिडेंसियों में भी एक एक बैंक 1840 में बैंक ऑफ बॉम्बे तथा 1843 में बैंक ऑफ मद्रास खोले गए। इन तीनों बैंकों को प्रेसिडेंशियल बैंक कहा गया।
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आगे चलकर साल 1921 में इन तीनों बैंकों का आपस मे विलय कर दिया तथा इसे इम्पीरियल बैंक ऑफ इंडिया का नाम दिया गया। यही बैंक आज़ादी के बाद साल 1955 में राष्ट्रीयकरण होने के बाद से स्टेट बैंक ऑफ इंडिया कहलाया, जो आज भी बैंकिंग क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान पर है।
पूर्णतः भारतीय बैंक
सन 1881 में अवध कमर्सिअल बैंक की शुरुआत हुई यह पहला बैंक था जो पूर्णतः भारतीय था अर्थात ये भारतीय पूँजीपतियों द्वारा शुरू किया गया था, किंतु आगे चलकर सन 1958 में इसे बंद कर दिया गया। अवध कमर्सिअल बैंक के बाद 1894 में पंजाब नेशनल बैंक की शुरुआत हुई यह भी पूर्णतः भारतीय बैंक था। 20वीं शदी के शुरुआत से स्वदेशी बैंक बनाने की तरफ ज़ोर दिया गया। इसी के चलते 1906 से 1911 के मध्य कई बैंकों की शुरुआत हुई, जिनमें बैंक ऑफ इंडिया, साउथ इंडियन बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा, केनरा बैंक, सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया आदि शामिल थे।
बैंकों का राष्ट्रीयकरण
आज़ादी के पूर्व तक सभी बैंक निजी क्षेत्र के थे, जिनकी शुरुआत देशी तथा विदेशी पूँजीपतियों द्वारा की गई थी। इन्हीं लोगों द्वारा समस्त बैंकिंग क्रियाकलापों का नियमन किया जाता था। परंतु आज़ादी के बाद सर्वप्रथम 1949 में बैंकिंग नियामक कानून बनाया गया, जिसके तहत देश के केंद्रीय बैंक अर्थात रिजर्व बैंक को सभी बैंकों के लिए नियम कानून बनाने का अधिकार मिला।
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हाँलाकि बैंकों के लिए नियम कानून बनाने का अधिकार रिजर्व बैंक को था किन्तु बैंकों का स्वामित्व अभी भी निजी क्षेत्र के लोगों के पास था, जिससे प्रत्येक नागरिक तक ख़ासकर ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग सेवा उपलब्ध नहीं थी। किसान महँगी दरों पर साहूकारों, महाजनों आदि से कर्ज लेने के लिए मजबूर थे इसके अतिरिक्त बैंकों के निदेशकों तथा उच्च अधिकारियों द्वारा मनमाने ढंग से ऋण दिए जाते थे।
इसी को ध्यान में रखते हुए साल 1969 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश के 14 बड़े बैंकों जिनमें देश की 85% धनराशि जमा थी का राष्ट्रीयकरण कर दिया अर्थात बैंकों के 50 प्रतिशत से अधिक की हिस्सेदारी खरीद ली परिणामस्वरूप बैंकों का स्वामित्व सरकार के पास चला गया। 14 बैंक जिनका राष्ट्रीयकरण किया गया निम्न हैं।
- इलाहाबाद बैंक
- बैंक ऑफ इंडिया
- केनरा बैंक
- बैंक ऑफ बड़ौदा
- बैंक ऑफ महाराष्ट्र
- सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया
- देना बैंक
- इंडियन ओवरसीज बैंक
- यूनाइटेड बैंक
- यूनियन बैंक ऑफ इंडिया
- यूको बैंक
- सिंडिकेट बैंक
- पंजाब नैशनल बैंक
- इंडियन बैंक
पुनः साल 1980 में 6 अन्य बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया और इस प्रकार देश की बैंकिंग सेवा का 91% हिस्सा सरकार के पास चला गया
- आंध्रा बैंक
- कॉर्पोरेशन बैंक
- न्यू बैंक ऑफ इंडिया
- ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स
- विजया बैंक
- पंजाब एंड सिंध बैंक
1991 के बाद बैंकिंग क्षेत्र
साल 1991 में भारत आर्थिक संकट का सामना कर रहा था, इस आर्थिक संकट की स्थिति में भारत ने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से कर्ज की माँग की किन्तु अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा अर्थव्यवस्था में उदारीकरण की नीति अपनाने की शर्त सामने रखी गयी। इससे पूर्व तक भारत में संरक्षणवादी आर्थिक नीति लागू थी। उदारीकरण का अर्थ एक ऐसी आर्थिक नीति से है जिसमें कोई भी उद्योग, व्यवसाय स्वतंत्र रूप से विकसित हो सके, इस नीति ने उद्योगों पर लगने वाले प्रतिबंध तथा किसी भी उद्योग या व्यवसाय को स्थापित करने के लिए लाइसेंस की आवश्यकता को समाप्त कर दिया।
भारत ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की शर्त को मान लिया और इसी के साथ निजी क्षेत्र के उद्योग बढ़ने लगे और निजी क्षेत्र के बैंकों की भी शुरुआत हुई परिणामस्वरूप RBI ने 10 निजी क्षेत्र के बैंकों को लाइसेंस दिया, जिनमें ICICI बैंक, एक्सिस बैंक, HDFC बैंक, IDBI बैंक आदि शामिल थे। चूँकि उदारीकरण की नीति अपनाने के बाद अन्य देशों के साथ भारत का व्यापार आसान हो गया अतः इसी के चलते कई विदेशी बैंकों को भी भारत में लाइसेंस दिया गया।
हालिया विलय
साल 2019 के अगस्त महीने में मोदी सरकार द्वारा देश के कई बैंकों का बड़े बैंकों में विलय कर दिया गया। इस प्रकार भारत मे कुल निजी क्षेत्र के बैंकों की संख्या 12 हो गयी। नीचे दिखाया गया है कि किन बैंकों का किस बड़े बैंक में विलय किया गया है।
- ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स तथा यूनाइटेड बैंक को पंजाब नैशनल बैंक के साथ मिला दिया गया। इस प्रकार पंजाब नैशनल बैंक SBI के बाद दूसरा सबसे बड़ा सरकारी बैंक बन गया है।
- सिंडिकेट बैंक का केनरा बैंक के साथ विलय
- आंध्रा बैंक तथा कॉर्पोरेशन बैंक का यूनियन बैंक में विलय
- इलाहाबाद बैंक का इंडियन बैंक में विलय
- देना और विजया बैंक का बड़ौदा बैंक में विलय
भारत में विदेशी बैंक
विदेशी बैंकों के क्रम में भारत में सर्वप्रथम एक फ्रांसीसी बैंक Comptoir d’Escompte de Paris ने सन 1860 में अपनी पहली शाखा कलकत्ता में खोली तथा दो वर्ष बाद 1862 में दूसरी शाखा मुंबई में शुरु की। इसके पश्चात सन 1864 में ग्रन्डले बैंक ने तथा 1869 में HSBC ने भी कलकत्ता में अपनी एक एक शाखाएं खोली। देश में आर्थिक नीति में बदलाव के बाद विदेशों से व्यापार बढ़ने के कारण अनेक देशों ने अपने बैंकों की शाखाएं भारत मे खोली वर्तमान में 40 से अधिक विदेशी बैंकों की लगभग 285 शाखाएं भारत मे कार्यरत हैं।
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